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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सहकार नहीं करते, हाथ-कताईका काम चल पाना नामुमकिन है। हमें ऐसी अवस्थामें पहुँचना है जब अन्न-विक्रेताकी तरह कताई करनेवालेको भी अपने सूतकी बिक्रीके लिए एक सुस्थिर बाजार मिल जाये और अगर वह पींजनेकी क्रिया नहीं जानता तो उसे उसकी जरूरतकी पूनियाँ मिलती रहें। अगर मैं कहता हूँ कि सर्वसाधारणकी बढ़ती हुई गरीबीको कताई ऐसे दूर कर देगी, मानो कोई जादू हो, तो क्या उसमें कोई आश्चर्य की बात है? एक अंग्रेज मित्रने मुझे एक अखबारकी कतरन भेजी है। उसमें चीनकी यान्त्रिक प्रगति दिखाई गई है। स्पष्ट है, वे समझते हैं, कताईकी हिमायत करके मैं यन्त्रों-सम्बन्धी अपने विचारोंका प्रचार कर रहा हूँ। मैं ऐसा कुछ नहीं कर रहा हूँ। अगर यन्त्रोंके प्रयोगसे भारतकी गरीबी दूर हो सके और यन्त्रोंके प्रयोगके परिणाम-स्वरूप जो बेकारी बढ़ती है, उससे बचा जा सके तो मैं बड़ेसे-बड़े यन्त्रोंके प्रयोगको भी पसन्द करूँगा। मैंने हाथ- कताईका सुझाव ऐसा मानकर दिया है कि यही वह एकमात्र तात्कालिक उपाय है जिससे गरीबी हटाई जा सकती है और रोजगार तथा धनकी कमी दूर की जा सकती है। चरखा तो खुद ही एक मूल्यवान यन्त्र है, और मैंने भारतकी विशेष परिस्थितियोंका खयाल करते हुए इसमें जैसा सुधार हो सकता है, अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार वैसा सुधार कराने की भी कोशिश की है। इसलिए भारत और मानवताके प्रेमीको जिस एक-मात्र सवालपर विचार करना है वह यह है कि भारत के दुःख और दीनताको दूर करनेकी व्यावहारिक योजना क्या होगी। मनुष्य अपनी मेधासे सिंचाई अथवा कृषि-सम्बन्धी दूसरे सुधारोंकी जैसी भी योजना बनाये, उससे भारतकी दूर-दूरतक फैली इतनी बड़ी आबादीको लाभ नहीं पहुँच सकता, और न जनसाधारणको, जिसे बराबर बेरोजगारीका सामना करना पड़ता है, रोजगार ही मिल सकता है। एक ऐसे राष्ट्रकी कल्पना कीजिए जो प्रतिदिन औसतन सिर्फ पाँच घंटे ही काम करता है और वह भी कोई अपनी इच्छासे नहीं, बल्कि परिस्थितियोंसे मजबूर होकर। यही भारतकी सच्ची तस्वीर है।

अगर पाठक इस तस्वीरकी कल्पना करें तो शहरी जीवनकी व्यस्तता-भरी हलचल, कारखानोंमें काम करनेवालोंके थककर चकनाचूर कर देनेवाले श्रम या बागानोंमें गुलामोंकी जिन्दगी बितानेवालोंकी मशक्कत के बारेमें न सोचेंगे। यह तो भारतके विशाल मानव-समुद्र में चन्द बूँदोंके समान है। अगर वे दरिद्रता और भूखसे पीड़ित भारतके नर-कंकालोंकी तस्वीर अपनी आँखोंके सामने खींचना चाहें तो उन्हें यहाँकी आबादी के उन अस्सी प्रतिशत लोगोंका ध्यान करना चाहिए जो खेतोंमें काम करते हैं और जिनके पास वर्षके कमसे-कम चार महीने प्राय: कोई धन्धा नहीं होता और इसलिए वे लगभग भुखमरीकी स्थितिमें रहते हैं। यह तो तबकी बात है, जब स्थिति सामान्य हो। बार-बार जो अकाल पड़ते रहते हैं, उनके कारण यह मजबूरीकी बेकारी और भी बढ़ जाती है। तो वह कौन-सा काम है जो ये पुरुष और स्त्रियाँ अपनी-अपनी झोंपड़ियोंमें आसानीसे कर सकती हैं, ताकि उनकी आयके जो अत्यन्त सीमित साधन हैं, उनमें कुछ वृद्धि हो सके? क्या किसीको अब भी इस बातमें सन्देह है कि वह काम हाथ-कताईके अलावा और कुछ नहीं हो सकता? और मैं एक बार फिर