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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

मैं प्रत्येक माँ-बापसे प्रार्थना करता हूँ कि:

१. वे अन्त्यजोंको पका हुआ भोजन न दें।
२. केवल सूखा और बिना पका हुआ भोजन दें।
३. उन्हें विदेशी अथवा फटे-पुराने वस्त्र न दें।
४. उनका वेतन कम हो तो उसमें वृद्धि करें।
५. जो दें सो प्रेमपूर्वक दें।

जो अन्त्यज इस लेखको पढ़ें उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे जूठा और सड़ा हुआ अनाज अथवा माँस न लेने और न खानेका निश्चय करें और अपने बच्चोंको, उनके लिए जो राष्ट्रीय स्कूल खोले जायें उनमें भेजें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ६-११-१९२१
 

१७६. पत्र: महादेव देसाईको

दिल्ली
मौनवार, [७ नवम्बर, १९२१][१]

चि० महादेव,

दिल अर्थात् आत्मा क्योंकि दिल अर्थात् हृदय। तन्दुरुस्त तो प्रचलित शब्द है। मुझे लिखना तो था शरीरकी तन्दुरुस्ती के बारेमें ही लेकिन केवल इतने-भरसे मुझे कैसे सन्तोष हो सकता था?

परसराममें दोष होने के बावजूद मैंने उसे पुत्रके रूपमें स्वीकार कर लिया है। तुम्हें तो मैंने मित्र ही माना है। दुर्गाको पहली ही मुलाकातमें बेटी माननेमें कोई संकोच नहीं हुआ। जमनालाल पुत्र बननेका दावा किया करता है लेकिन उसके सम्बन्धमें मेरे मनमें पितृत्वकी भावना आ ही नहीं सकती।

तुम्हारे एक भजनके बारेमें मुझे ऐसा लगा कि मैंने उसे कहीं पढ़ा है, तथापि कोई कारण नहीं कि वैसा ही भजन तुम्हें क्यों नहीं सूझ सकता? लेकिन मैं तुम्हारा पत्र मिलने से पहले ही कल इसका उत्तर दे चुका हूँ? बीमारीमें तुम्हारे मनमें आत्मा सम्बन्धी विचार ही आये, सो इसमें ही स्वराज्य आ गया। स्वराज्यका अलगसे विचार करनेकी कोई जरूरत ही न थी।

शरीर-धर्मको पूरा किये बिना निस्तार नहीं है। खाने, नहाने, भीख माँगते हुए घूमनेकी बातको हम बुरा नहीं समझते और मात्र मेहनत करके अन्न खानेकी बातसे द्वेष करते हैं। मनके यज्ञसे मनकी, आत्माके यज्ञसे आत्माकी और देहके यज्ञसे देहकी

 
  1. ‘दिल’, ‘तन्दुरुस्त’ और ‘भजन’ के उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि यह पत्र ३१-१०-१९२१ के तुरन्त बाद पड़नेवाले मौनवारको लिखा गया था। देखिए “पत्र: महादेव देसाईको”, ३१-१०-१९२१।