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भाषण: लाहौरके राष्ट्रीय कालेजके दीक्षान्त समारोहमें

मुझे यह पसन्द नहीं कि कोई अपना अस्तित्व आप ही मिटा ले। मैं तो सिर्फ एक ही अवसरको ऐसा मानता हूँ, जब मनुष्यको अपने-आपको मिटा देना चाहिए। मेरा तात्पर्य उस अवसरसे है, जब कोई पुरुष परायी स्त्रीपर कुदृष्टि डाले। स्त्रीके लिए ऐसा अवसर मैं तब मानता हूँ जब वह देखे कि कोई पुरुष उसके साथ दुराचार करनेपर तुला हुआ है। ऐसे समय में अपने-आपको मिटा देना ही उसके लिए अच्छा है। भारतीय स्त्रियाँ सीताकी तरह सती-साध्वी हैं।

अभी मैंने ‘वन्देमातरम्’ का सुन्दर गायन सुना। १९१५ में मैंने यही गायन मद्रासमें सुना था।[१] तभी मैंने अपने-आपसे पूछा था कि यह गीत हमारे लिए वास्तवमें क्या अर्थ रखता है। क्या हमें इस तरह गानेका अधिकार है? हम भारतमाताको नमन करते हैं और उससे सुरक्षाकी माँग करते हैं। लेकिन आज भारत किस अवस्थामें पड़ा हुआ है? उसकी लाखों सन्तानोंको सिर्फ एक ही समय भोजन मिलता है, और सो भी नमक और रोटीके अलावा और कुछ नहीं। उसके साथ खानेके लिए सब्जी वगैरह कुछ भी उन्हें मयस्सर नहीं। क्या हम ईमानदारीके साथ ऐसा कह सकते हैं कि हमारी मातृभूमि हमें सुरक्षा देती है? हम अपनी मातृभूमिकी अयोग्य सन्तान हैं।

पेशावरका एक छः फुट ऊँचा हट्टा-कट्टा हिन्दू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और शिकायत करने लगा कि सीमा प्रान्तके मुसलमानोंने उन लोगोंकी स्त्रियोंके साथ दुर्व्यवहार किया। क्यों नहीं वह अपने घरकी स्त्रियोंको रक्षा करते हुए मर मिटा? आज सुबहकी ही बात है कि एक व्यक्तिने मुझसे कहा कि अगर आप मुसलमानोंको मित्र बनाना चाहते हैं तो यह आपका पागलपन ही है। मैंने जवाब दिया कि मैं मुसलमानों को इस कारण मित्र बनाना चाहता हूँ कि मुझमें साहस है। अगर कुछ मुसलमान कुछ बुरे काम करते हैं तो इस कारण सभी मुसलमानोंको उसके लिए दोषी ठहराना उचित नहीं है। यही बात हिन्दुओंके साथ भी लागू होती है, जो अस्पृश्योंके प्रति डायरवादी व्यवहार करनेके दोषी हैं। अगर पंजाबमें मुसलमानोंकी आबादी पचास प्रतिशतसे अधिक हो तो हिन्दुओंको उनसे डरने की जरूरत नहीं है। अगर हिन्दू मुसलमानोंके साथ कोई ज्यादती या बेईमानी नहीं करना चाहते तो फिर उन्हें मुसलमानोंसे डरना ही क्यों चाहिए? सभी प्राचीन सन्त-महात्माओंकी सीख यही है कि भला करोगे तो भला पाओगे और बुरा करोगे तो उससे भी बुरा पाओगे। चाहे दयानन्द [२] हों, या रामानुज अथवा मध्वाचार्य, सभीकी सीख यही है। अगर हिन्दू लोग ईमानदारी का व्यवहार करना चाहते हैं तो उन्हें किसीसे डरनेकी कोई जरूरत नहीं है। यही बात मुसलमानों और सिखोंपर भी लागू होती है।

 
  1. देखिए खण्ड १३, पृष्ठ. ६८।
  2. स्वामी दयानन्द सरस्वती (१८२४-८३); आर्यसमाजके संस्थापक।