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टिप्पणियाँ

 

महात्माजीका भाषण समाप्त होनेपर लाला लाजपतरायने धन्यवाद देते हुए कहा कि आपने इतनी दूर आकर हमारे सामने बोलनेका जो कष्ट किया, उसके लिए हम आपके आभारी हैं।

[अंग्रेजीसे]
हिन्दू, १९-११-१९२१
 

१७८. टिप्पणियाँ

चरखेकी उपयोगिता

दिल्लीमें अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति द्वारा स्वीकृत सविनय अवज्ञाके प्रस्तावमें स्वदेशीके सम्बन्धमें जो शर्तें रखी गई हैं उनका बड़ा विरोध किया गया था। यह विरोध इन दो शर्तों के विषयमें था―एक, सविनय प्रतिरोध करनेवाला, उस प्रस्तावकी योजना के अनुसार, चरखा कातनेका ज्ञान रखने के लिए तथा सिर्फ हाथ-कती और हाथ-बुनी खादी ही पहनने के लिए बाध्य है; और दूसरे यह कि जो जिला या तहसील सामूहिक सविनय अवज्ञा करना चाहे उसे अपनी जरूरत-भरका तमाम सूत और कपड़ा अपने हाथसे जरूर तैयार करना चाहिए। इस विरोधसे यह मालूम हो गया कि लोग अभीतक चरखेका महत्व नहीं समझ पाये हैं। भारतभूमिसे दरिद्रताको देश-निकाला देनेवाली अगर कोई वस्तु है तो वह चरखा ही है। कंगाल लोग खुशी-खुशी कष्ट-सहन नहीं कर सकते। उन्हें समृद्धिकी पीड़ाका इतना ज्ञान नहीं है कि वे स्वेच्छापूर्वक भूख-प्यास अथवा दूसरे शारीरिक कष्ट-सहन करनेके सुखको समझ सकें। उनकी दृष्टिमें तो स्वराज्यका इतना ही अर्थ हो सकता है कि वे बिना भीख माँगे अपना पेट पालनेके लायक हो जायें। उनके हृदयमें अपनी वर्तमान स्थितिके प्रति असन्तोषकी भावनाको जाग्रत करना परन्तु उन्हें उसका कारण दूर करनेके साधन न देना, मानो विनाश, अराजकता, मारकाट और लूटमारको निश्चित रूपसे बुलावा देना है। और इनके खास शिकार होंगे खुद वे ही बेचारे दीन-दरिद्र। बस, अकेला चरखा ही उनके लिए अपनी आमदनीका दूसरा सहायक साधन हो सकता है। बुनाईके द्वारा बहुतेरे, और धुनाईके द्वारा कुछ कम लोग, अपनी गुजरके लायक पूरी आमदनी कर सकते हैं। लेकिन कपड़ा बुनाईकी कला अभी नष्ट नहीं हुई है। कई लाख आदमी कपड़ा बुननेकी विद्या जानते हैं। लेकिन ठीक अर्थोंमें सूत कातना तो, बहुत ही कम लोग जानते हैं। हाँ, यह सच है कि आज हजारों लोग चरखा घुमा रहे हैं; परन्तु असलमें सूत कातनेवाले लोग सिर्फ थोड़े ही हैं! चारों ओर पुकार मच रही है कि हाथ-कता सूत अच्छा नहीं आता― उससे ताना अच्छा नहीं बनता। जिस प्रकार अध-सिकी रोटी, रोटी नहीं होती उसी प्रकार खराब कता कमजोर धागा सूत नहीं हो सकता। देशमें आज जो सूत कत रहा है उसमें सुधारकी अभी बहुत जरूरत