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समझना चाहिए। जो तहसील अपना अन्न खुद ही पैदा करती है, अपना सूत खुद ही कातती है, अपना कपड़ा खुद ही बुनती है, और अपनी स्वाधीनता के लिए मुसीबतें उठानेके लिए भी तैयार है, वही वास्तवमें इस सालमें स्वराज्यकी स्थापनाके लिए तैयार है। और अगर एक तहसीलने भी अपने कार्यको पूरा कर लिया तो वह एक दीपककी तरह तमाम मकानको अपनी रोशनीसे जगमगा देगी। मैं तो सफलतापूर्वक सविनय अवज्ञा करना तबतक नामुमकिन ही समझता हूँ जबतक लगभग आदर्श परिस्थितियोंमें कोई ऐसा प्रयत्न न किया जाये जो दूसरे प्रान्तोंके लिए मार्ग-दर्शक हो। इसमें कोई शक नहीं कि भारतके कई भाग ऐसे हैं जहाँ ऊनी तथा सूती कपड़ोंके सूतकी कताई पूरी तरह चरखेपर ही होना फिलहाल नामुमकिन है। किन्तु जब उन भागोंमें, जहाँ फिलहाल यह काम हो सकता है, पूरी तरहसे संगठन हो जायेगा तब उन दूसरे भागोंके विषयमें शर्त कुछ ढीली कर देनेमें कुछ कठिनाई न होगी।

हिन्दुस्तानी

अखिल भारतीय कांग्रेस महासमितिमें हिन्दुस्तानी―अर्थात् सर्व-साधारणकी भाषा―बड़ी तेजीसे विचार-प्रकाशनका माध्यम होती जा रही है। समितिमें बहुतसे सदस्य अंग्रेजीका एक भी शब्द नहीं समझते और मद्रास प्रान्तके सदस्य हिन्दुस्तानी नहीं समझते। बंगालके सदस्य कठिनाईसे हिन्दुस्तानी समझते हैं। वे हिन्दी-भाषामें बोलनेकी आवश्यकताको मानते भी हैं और जब समितिकी कार्यवाही हिन्दुस्तानीमें चल रही थी तब उन्होंने उसपर नाक-भौं नहीं चढ़ाई। किन्तु द्रविड़-भाइयोंके लिए तो वह एक प्रकारका सचमुच त्याग ही था। गत अधिवेशनमें मद्रासका सिर्फ एक ही सदस्य उपस्थित था और मलाबारसे भी अधिक लोग नहीं आ सके थे। किन्तु जब सब द्रविड़ सदस्य उपस्थित होंगे तब तो सचमुच बड़ी मुश्किल होगी। परन्तु फिर भी उसे दूर करनेका इसके सिवा दूसरा कोई मार्ग ही दिखाई नहीं देता कि द्रविड़ भाई जितनी जल्दी हो सके काफी हिन्दुस्तानी सीख लें। जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते उनसे तो यह अपेक्षा की नहीं जा सकती कि वे अंग्रेजी पढ़ लेंगे और अब तो लोक-संस्थाओंकी नीति अधिकाधिक यही होनी चाहिए कि उनमें ऐसे ही सदस्य रहें जो अंग्रेजी न जानते हों। इसलिए, हिन्दुस्तानीके भावनात्मक अथवा राष्ट्रीय महत्वकी बात छोड़ दें तो भी यह दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक आवश्यक मालूम होता जा रहा है कि तमाम राष्ट्रीय कार्यकर्त्ताओंको हिन्दुस्तानी सीख लेनी चाहिए और राष्ट्रकी तमाम कार्यवाही हिन्दीमें ही की जानी चाहिए। किन्तु, यद्यपि गत अधिवेशनमें यह बात तय हुई थी; तथापि द्रविड़ और बंगाली सदस्य यह बात सुनना ही नहीं चाहते थे कि उसके अनुसार समिति कोई कड़ा नियम बना दे। हाँ, वे इतना तो खुशीसे सहन कर लेते हैं कि जिसका जी चाहे वह हिन्दुस्तानीमें बोले; परन्तु वे यह पसन्द नहीं करते कि समिति ऐसा प्रस्ताव स्वीकार करके लोगोंको उसके लिए मजबूर करे। आखिर यह बात कार्यकारिणी समितिपर छोड़ दी गई। किन्तु इस दुविधाके होते हुए ऐसे कोई सुझाव देना कार्यकारिणी समितिके लिए बहुत कठिन है जिसे सदस्य एकमतसे मंजूर कर लें।