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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इनकार कर सकता है, वह अनधिकार प्रवेश विषयक कानूनकी अवज्ञा कर सकता है और सैनिकोंसे बातचीत करनेके लिए फौजी बैरकोंमें जानेके अधिकारपर आग्रह कर सकता है। वह धरना देने के तरीकेके बारेमें लगाई गई पाबन्दियोंको मानने से इनकार कर सकता है और मना किये गये मुकामोंपर जाकर ‘धरना’ दे सकता है। परन्तु इन सब कार्यों को करते हुए वह अपने विरुद्ध बलप्रयोग किये जानेपर स्वयं कभी बल प्रयोग नहीं करता। सच बात तो यह है कि वह स्वयं अपने खिलाफ कैद तथा बल- प्रयोगके दूसरे प्रकारोंको निमन्त्रित करता है। वह ऐसा इसलिए और तभी करता है जब वह देखता है कि उसका शरीर-स्वातन्त्र्य, जिसका उपभोग वह प्रकटतः करता है, एक असह्य बोझ हो गया है। वह अपने मनमें यह सोचता है कि राज्य सिर्फ वहीतक व्यक्तिगत स्वतन्त्रताकी इजाजत देता है जहाँतक नागरिक उसके कानून-कायदोंको मानता है। नागरिक राज्यके कानून कायदोंको मानकर अपनी निजी आजादीकी कीमत देता है। अतएव एक पूर्ण या अधिकांश अन्यायी राज्यको मानना, आजादीका अनीति-मूलक सौदा करना है। जो नागरिक इस प्रकार यह देख लेता है कि यह राज्य तो बुरा है तब वह उसे चुपचाप सहन करता हुआ सन्तुष्ट नहीं रहता और इसलिए वह जब नीतिका उल्लंघन किये बिना राज्यको अपनी गिरफ्तारीके लिए मजबूर करता है तब वह उन लोगोंको, जो उससे मतभेद रखते हैं, समाजके लिए एक व्याधि दिखाई देता है। इस तरह सोचें तो सविनय प्रतिरोध आत्माकी वेदना प्रकट करने और एक बुरे राज्यके अस्तित्वके खिलाफ कारगर तौरपर अपनी ऊँची आवाज उठानेका बहुत जोरदार तरीका है। क्या संसारके सारे सुधारोंका इतिहास ऐसा ही नहीं है? क्या उन सुधारकोंने, अपने साथवालोंकी तीव्र अनिच्छा होनेपर भी, उन निर्दोष स्थूल-चिह्नों तक को नहीं छोड़ा है जिनका सम्बन्ध बुरी प्रथाओंसे था?

जब कुछ लोग उस राज्यसे अपना सम्बन्ध तोड़ देते हैं जिसमें वे अबतक रहते आये हैं, तो इसका अर्थ यह है कि वे करीब-करीब अपनी निजी सरकार स्थापित कर लेते हैं। मैंने ‘करीब-करीब’ शब्दका प्रयोग इसलिए किया है कि जब राज्यकी ओरसे वे ऐसा करनेसे रोके जाते हैं तब वे बल-प्रयोग करनेकी सीमातक नहीं जाते। व्यक्तिगत रूपसे उनका ‘काम’ तो यह है कि जबतक राज्य उसका पृथक् अस्तित्व स्वीकार न कर ले, या दूसरे शब्दोंमें, उसकी इच्छाके आगे सिर न झुका दे तबतक वे कोठरियोंमें बन्द रहें या राज्यकी गोलियाँ खाकर मरते रहें। १९१४ में [१] दक्षिण आफ्रिकामें तीन हजार हिन्दुस्तानियोंने इसी प्रकार ट्रान्सवाल प्रवासी अधिनियमको भंग करनेके लिए ट्रान्सवालकी सीमामें प्रवेश किया था और सरकारको अपनी गिरफ्तारीके लिए बाध्य किया था। जब सरकार उनको मारकाटके लिए उभाड़नेमें या दबानेमें सफल न हो सकी तब उसने उनकी माँग स्वीकार कर ली। इसलिए सविनय अवज्ञा करने-वालोंका समुदाय एक ऐसी सेना है, जिसके लिए एक सैनिककी तरह पूरा अनुशासन, बल्कि उससे भी कड़ा अनुशासन आवश्यक होता है; क्योंकि उसमें वह उत्तेजना नहीं होती जो मामूली सैनिकके जीवनमें पाई जाती है। और चूँकि इस सविनय प्रतिरोध करनेवाली

 
  1. ६ नवम्बर, १९१३ को; देखिए खण्ड १२, पृष्ठ २५१।