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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आलोचनाको पढ़ना चाहिए, उसपर विचार करना चाहिए। अन्तमें वे अंग्रेज लेखकोंके कथनको उद्धृत करने के लिए क्षमा माँगते हैं। ऐसे पत्र मुझे मिलते हैं, सो ठीक है और मुझे प्रिय भी हैं। पत्र-लेखकको क्षमा माँगनेकी कोई जरूरत नहीं है। मैं अंग्रेज लेखकोंकी अवगणना नहीं करता। मैंने उनमें से अनेक लेखकोंकी रचनाएँ पढ़ी हैं और उनसे लाभ उठाया है। कुछेक व्यक्तियोंका मैं पुजारी हूँ। अपनी आलोचनाको पढ़कर उसपर विचार करना, प्रत्येक विवेकी और विनम्र व्यक्तिका कर्त्तव्य है। व्यक्ति जितना आलोचकोंसे सीखता है उतना अपने अनुयायियोंसे नहीं सीखता। इसीलिए कितने लोग मेरे वचनोंको पसन्द करते हैं इसकी अपेक्षा मैं इस बातका ज्यादा ध्यान रखता हूँ, कितने नापसन्द करते हैं। और यदि मैं एक बार निश्चित किये गये विचारोंको एकाएक नहीं बदलता तो उसका सबल कारण यह है कि मैं टीकाओंपर पहले ही विचार कर लेता हूँ। श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा की गई एक भी टीका ऐसी नहीं है जिसपर मैंने विचार न किया हो। एक बात निस्सन्देह सत्य है। अन्तरात्माकी आवाजको मैं प्रमुख स्थान देता हूँ; उसके आगे महान पुरुषोंके वचन भी नहीं टिक सकते और न टिकने ही चाहिए। स्वराज्यवादी कुछ और कर ही नहीं सकता। जो व्यक्ति अन्तरात्माकी आवाजको प्रथम स्थान नहीं देता वह मनुष्यतासे गिर जाता है और उसकी कीमत कौड़ीकी ही हो जाती है। अन्तरात्माकी आवाज सबको सुनाई नहीं देती, यह बात हमें समझ लेनी चाहिए। अन्तरात्माकी आवाज मननशील, विवेकी, नम्र, आस्तिक और संयमीको ही सुनाई देती है। मैं मनन, विवेक अथवा नम्रतासे शून्य नहीं हूँ। आस्तिक तो हूँ ही। संयमका पालन करनेका पूरा प्रयत्न करता हूँ। इससे मैं मानता हूँ कि मुझे अन्तरात्माकी आवाज सुनाई देती है। सब लोग मेरी तरह अपनी अन्तरात्माकी आवाज सुन सकते हैं और जो इस आवाजको सुन पाता है उसे एक बहुत बड़ा सहारा प्राप्त हो जाता है। बादमें वह महानसे-महान पुरुषोंके वचनोंसे उसकी तुलना कर सकता है? इसमें कभी-कभी वह भूल भी कर सकता है और तब वह अत्यन्त नम्रतापूर्वक उसको स्वीकारकर पश्चात्ताप भी करता है।

सविनय अवज्ञा

यही पत्र-लेखक पूछता है कि ‘आप कानूनकी सविनय अवज्ञा करनेकी सलाह देते हैं तो इसके साथ ही कानून भंगके फलस्वरूप प्राप्त सजाका अनादर करनेके लिए क्यों नहीं कहते?” लेकिन सजाका अनादर होनेपर तो अन्धेरगर्दी ही हो जायेगी, क्योंकि उसमें विनय नहीं रहेगा। विनयका तकाजा है कि सजाका अनादर नहीं होना चाहिए, अनादर तो हुक्मका ही होता है। इसके सिवा, सजाका अनादर असम्भव है। सविनय अवज्ञाकी उत्पत्ति आत्मबलसे होती है। अत्याचारी अपने शरीर-बलपर मुग्ध हो जगतको अपने अधीन करनेका प्रयत्न करता है। आत्मबली अपना शरीर अत्याचारीको सौंपकर आत्माको स्वतन्त्र बनाता है। क्योंकि अत्याचारी आत्माका स्पर्शतक भी नहीं कर सकता। प्रह्लादने सविनय अवज्ञाकी लेकिन पर्वतपरसे गिरनेमें उसे कोई हिचक नहीं हुई। अंगार जैसे लाल लोहेके स्तम्भ से उसने मित्रकी तरह भेंटकी। सुधन्वा उबलते तेलकी कड़ाहीमें हँसते-हँसते गिर गया। यूसुफ पैगम्बरने अन्यायपूर्ण आदेशोंको