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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/४८२

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४५० सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय इस बातका विचार रहा है कि आघात पहुँचानेवालेके साथ हम कैसा व्यवहार करें जिससे उसको आघात न पहुँचे बल्कि हम कुछ-न-कुछ उसका भला ही करें। असह्योग- का मूल दयामें निहित है, रोषमें नहीं । कदाचित् हम स्वयं भूलते हों यह सोचकर हम अपने विरोधीपर रोष नहीं करते। उससे हम स्वयं दूर भागते हैं । इस तरह भागनेका परिणाम अवश्य गम्भीर होता है। इसलिए जिन व्यक्तियों अथवा जिस संस्थासे हम असहयोग करते हैं उस संस्थाको चलानेवाले व्यक्तियोंको आघात तो अवश्य पहुँचता है लेकिन दयाधर्मका अर्थ यह नहीं है कि आघात कभी किया ही न जाये । कविश्रीसे मैंने ऐसा दयाधर्म नहीं सीखा है । हमारे अपने सत्कार्यसे, कर्त्तव्य पालनसे दूसरोंको दुःख होता हो तो उसे सहकर भी सत्कार्य करनेमें ही सच्चा दयाधर्म है। । मैं अनेक बार कह चुका हूँ कि मैंने बहुत सारे व्यक्तियोंके जीवनसे बहुत-कुछ ग्रहण किया । लेकिन सबसे अधिक अगर मैंने किसीके जीवनसे ग्रहण किया है तो वह कविश्रीके जीवनसे ही किया है। एक भी कार्य नहीं हो सकता जिससे आघात दयासे प्रेरित होना चाहिए। दयाधर्म भी मैंने उनके जीवनसे सीखा है। ऐसा किसीको भी आघात न पहुँचता हो लेकिन यह इस आघातकी दो शर्तें हैं : (१) हम अमुक कार्य तभी कर सकते हैं जब हमें अपने प्रतिपक्षी व्यक्तिसे अधिक आघात पहुँचता हो । (२) हमारा हेतु अत्यन्त शुभ होना चाहिए, उसमें अपने विरोधीका कल्याण भी हमारे मनमें होना चाहिए। मान लीजिये कि मेरा लड़का शराब पीता है, बीड़ी पीता है, व्यभिचारी है। वह मुझेसे पैसा मांगता है। आजतक तो उसने माँगा और मैंने दिया क्योंकि मैं एक अन्धा बाप था । मैंने रायचन्दभाईके' प्रसंगसे सीखा कि मुझे स्वयं तो शराब-बीड़ी आदि नहीं ही पीनी चाहिए, व्यभिचार नहीं करना चाहिए लेकिन दूसरोंको भी उसमें से उबार लेना चाहिए। इसलिए मेरा धर्म है कि मैं अपने लड़केको पैसा न दूं, उसके हाथमें शराबका प्याला देखूं तो उसे छीन लूँ । मुझे मालूम हो कि वह अमुक सन्दूकमें शराब रखता है तो मुझे वह सन्दूक जला डालना चाहिए; बोतल देखूं तो मुझे उसे फोड़ डालना चाहिए। ऐसा करनेसे लड़केको तो जरूर आघात पहुँचेगा और वह मुझे क्रूर बाप - मानेगा । दयाधर्मको समझनेवाला बाप, पुत्रको आघात पहुँचेगा, यह सोचकर नहीं डरता, पुत्रके श्रापसे वह घबराता नहीं है । इस अवसरपर दयाधर्म परोपकार-धर्म ही यह बताता है कि उसके हाथमें से शराब की बोतल छीन लेनी चाहिए। बलप्रयोगके द्वारा मैं भले ही उससे बोतल न छीनूं लेकिन मुझे अगर मालूम हो कि घरमें अमुक स्थान- पर वह बोतल रखता है तो वहाँसे बोतल लेकर मैं उसे फोड़ अवश्य डालूंगा । -- रायचन्द भाईने दयाधर्मका बहुत ही सुन्दर मापदण्ड प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि हम सामान्य मामलोंमें किसीको व्यर्थ नाराज न करें, दयाधर्मका नाम लेकर दूसरोंको छोटी-छोटी बातमें टोकने न बैठ जायें, दयाधर्मके इस सामान्य नियमको अगर १. गुजरातकी आम जनता श्रीमद् राजचन्द्रको इसी तरह पुकारती है । Gandhi Heritage Portal