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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/४८३

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भाषण : राजचन्द्र जयन्ती के अवसरपर, अहमदाबाद में


हम समझ लें तो ऐसी अनेक बातें, जो हमारी समझमें पूरी तरह नहीं आती हम लोक- लज्जावश ही करने लग जायें। खादी किसलिए पहनी जाये यह बात मुझे समझमें न आये और मुझे झीनी मलमल अच्छी लगती हो तो भी जिस समाजमें मैं रहता हूँ वहाँ सब खादी पहनते हैं और खादी पहनने में कुछ बुरा नहीं है, कोई अधर्मं नहीं है ऐसा समझकर मैं वही करूँगा जो उस समाजमें होता है । यह सरल नियम मुझे रायचन्दभाईने ही सिखाया ।

बम्बई में हम एक बार दयाधर्मकी चर्चा कर रहे थे । चमड़ेका उपयोग करना चाहिए अथवा नहीं, इसका विचार हो रहा था । हम दोनोंने अन्तमें स्वीकार किया कि चमड़े के बिना तो नहीं चल सकता । खेती जैसे उद्योग तो चलने ही चाहिए; लेकिन अगर कुछ नहीं तो चमड़ा माथेपर तो कदापि नहीं पहनना चाहिए। मैं तो स्वभावसे ही जरा मजाक-पसन्द ठहरा। मैंने पूछा कि आपकी सिरकी टोपीमें क्या है ? वे स्वयं तो आत्मचिन्तनमें लीन रहनेवाले थे । स्वयं क्या पहनते हैं, क्या ओढ़ते हैं इसका विचार करने नहीं बैठते थे । टोपीमें चमड़ा लगा हुआ है, यह उन्होंने देखा नहीं था । लेकिन जैसे ही मैंने उन्हें बताया वैसे ही उन्होंने टोपीमें से चमड़ा तोड़कर फेंक दिया। मुझे ऐसा नहीं लगता, मेरी दलील इतनी सशक्त थी कि वह तुरन्त उनके मनमें उतर गई, उन्होंने तो दलील ही नहीं की। उन्होंने यही सोचा होगा कि इसका हेतु अच्छा है, मेरे प्रति पूज्यभाव रखता है, उसके साथ बहस किसलिए करूँ ? उन्होंने तो तुरन्त चमड़ेको उतार फेंका और मैं समझता हूँ कि बादमें उन्होंने कभी चमड़ा नहीं पहना । लेकिन अगर कोई मुझसे आज आकर यह बात कहे कि उसने उन्हें बादमें भी चमड़े- की टोपी पहनते हुए देखा है तो भी मुझे उससे आघात नहीं पहुँचेगा। अगर मैं फिर उनके पास पहुँचूँ तो वे उसे फिर उतार फेंकेंगे। वह इसीलिए रह गया होगा कि उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं था ।

इसीमें महापुरुषका महत्व है। इससे यह पता चलता है कि उनमें मिथ्याभिमान नहीं होता । वे बालकसे भी सीख लेने को तैयार रहते हैं। बड़े लोग छोटी बातों में मतभेद नहीं रखते हैं। छोटी-छोटी बातोंमें जो दयाधर्मका बहाना करके मतभेद रखता है, और आत्माकी आवाजकी बात करता है उससे मैं कहता हूँ कि उसे आत्माकी आवाज सुनाई नहीं पड़ती या फिर पशुकी तरह उसकी आत्मा सुप्त है। अधिकतर मनुष्योंकी आत्मा सुप्तावस्थामें ही रहती है। मनुष्यमें और पशुमें इतना ही भेद है कि मनुष्यकी आत्मा सम्पूर्ण रूपसे जाग्रत हो सकती है। अगर हम निन्यानवे अवसरोंपर दुनियाके साथ चलते हों तो सौवें अवसरपर उससे कह सकते हैं कि वह सही नहीं है । जन्मके साथ ही जो दुनियाके साथ वैर बाँध लेता है वह प्रेम कैसे कर सकता है ?

अधिकांश अवसरोंपर तो हमें ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए मानो हम जड़ हों । शुद्ध जड़ और चैतन्यमें भेद नहीं के बराबर है । सारा जगत जड़ रूपमें ही दिखाई देता है, आत्मा तो कभी-कभी ही चमकती है। अलौकिक पुरुषका व्यवहार ऐसा ही होता है और मैंने देखा है कि ऐसा ही व्यवहार रायचन्दभाईका था ।

वे अगर आज जीवित होते तो इस समय जो प्रवृत्ति चल रही है उसको उन्होंने जरूर आशीर्वाद दिया होता। इस वस्तुमें धर्म है। जिसकी आत्मामें दयाधर्म वास