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वनज रँग अब लगभग लुप्तप्रायः हैं। जब असम अंग्रेजोंके आधिपत्यमें आ गया तब स्त्रियोंने कातना छोड़ दिया और विदेशी सूतको बुननेका पापमय कार्य प्रारम्भ कर दिया। अब असम की स्त्रियाँ बुननेमें जितनी बचत कर लेती हैं उतना ही विदेशी सूत खरीदने के कारण खो देती हैं। आज जो साड़ियाँ में देखता हूँ वे सुन्दरता या कोमलतामें पुराने नमूनोंकी तुलनामें कुछ भी नहीं है। यदि असम के कार्यकर्त्ता अपने कर्त्तव्यका पालन करें तो स्वदेशी विकासमें उसका योग महत्त्वपूर्ण हो सकता है। वहाँकी स्त्रियाँ अपनी आवश्यकतासे कहीं अधिक कपड़ा बुन सकती है। वहाँ आज चालीस हजार एकड़ भूमिपर कपासकी खेती होती है, और एक एकड़की औसत उपज १३३ पौण्ड है। लेकिन निश्चय ही असम इससे बहुत अधिक उपजा सकता है। कुछ कपास जो मैंने यहाँ देखी है सुन्दर है और लम्बे रेशेवाली है। आन्ध्रके समान ही यहाँ भी छिटपुट घरोंमें महीन कताई अब भी हो रही है। सभी मानते हैं कि असमियोंके पास समय काफी रहा करता है। किसी और स्थानपर मैंने एक अंग्रेज लेखकके इसी धारणाकी पुष्टि करनेवाले विचार उद्धृत किये हैं। असममें पक्की और टिकाऊ लकड़ीकी बहुतायत भी है जो चरखे बनानेके लिए बिलकुल उपयुक्त है। हम आशा करें कि स्वदेशीके मामलेमें असम अपनी पूरी क्षमता दिखायेगा।

असमिया अफीम खानेके आदी हैं, परन्तु सम्पूर्ण भारतमें इस कुटवके विरुद्ध आन्दोलन फैल चुका है। मैंने सुना है कि बहुतेरे लोगोंने इस कुटेवका सर्वथा त्याग कर दिया है और नशीली चीजोंसे परहेजका आन्दोलन बढ़ रहा है।

मैंने सुना है कि कुछ सरकारी अफसरोंने मेरी एक भूलका उपयोग किया है जो मैंने 'हिन्द स्वराज्य' नामक पुस्तिकामें की थी; उसमें एक जगह मैंने असमियोंकी गिनती पिण्डारियों और दूसरी जंगली जातियोंके साथ की है।[१] मैं जनताके सामने इस भूलको स्वीकार कर चुका हूँ और मैंने उसमें सुधार कर लिया है। असमकी महान् जनताके प्रति मेरा यह घोर अन्याय था; वे निश्चय ही सब प्रकारसे भारतके दूसरे भागों जितने ही सभ्य हैं। उनका उत्तम साहित्य है, जिसका कुछ भाग अगरु पेड़की छालपर लिखा गया है जो अनेक रंगीन चित्रोंसे युक्त है, और बहुत प्राचीन है। असमकी स्त्रियोंसे तो, जैसे ही उनके कुशल बुनकर होनेका पता चला, मुझे सहज ही प्रेम हो गया। बुनकर होने के नाते वे अपनी वेशभूषामें किफायतसे काम लेती हैं और खूबी यह है कि इससे न तो उनकी सुन्दरतामें कोई कमी हुई है और न शरीरको ढकनेकी उनकी क्षमतामें। असमी महिलाएँ और कन्याएँ थोड़े ही या नगण्य गहने पहने दीखती हैं -- यह भी उनकी उत्तम संस्कृतिका चिह्न है, मैं तो ऐसा ही मानता हूँ। वे भारतके और सब भागोंकी स्त्रियोंके समान ही स्वभावतः संकोची और सुशील हैं और उनके चेहरे सुसभ्य और निष्कपट हैं।

असमियोंके विषयमें मेरी उपर्युक्त गलत धारणा बनी १८९० में, जब मैंने मणिपुरकी चढ़ाईका वृत्तान्त पढ़ा था, उसमें स्वर्गीय सर जॉन गॉस्टने वहाँके स्वर्गीय सेनापति के प्रति अधिकारियोंके व्यवहारका बचाव करते हुए कहा था कि सरकार हमेशा

  1. संशोधित संस्करणके लिए देखिए खण्ड १०, पृष्ठ २४ तथा पृष्ठ ६ पा० टि० १।