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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुखिया-रूपी ऊँचे पौधोंको तराशना पसन्द करती है। इतिहासका कच्चा पाठक होने के कारण मेरे मनमें यह धारणा रह गई कि असमिया जंगली होते हैं और १९०८ में[१] वह लिखने में भी आ गई। जो भी हो, मेरी इस भूलसे कुछ अफसरोंको कुछ चैन मिला, उस जनताको हँसीका मसाला मिला जिसके सामने मैंने अपनी भूल सुधारी और मुझे शानदार मौका मिला कि असमी बहनोंके सादे और अकृत्रिम सौन्दर्यकी प्रशंसा कर सकूं तथा उन्हें भारत और स्वदेशीके पक्षमें करूँ।

मुझे इस तथ्य की चर्चा भूलनी न चाहिए कि लगभग अठत्तर असमी वकीलोंमें से पन्द्रह वकोलोंने वकालत छोड़ दी है जो सम्भवतः भारत-भर में सबसे ऊँची प्रतिशत संख्या है।

अन्त में मैं कांग्रेस कमेटियोंको धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने सब सभाओंमें सुन्दर व्यवस्था रखी है और अद्भुत अनुशासन द्वारा सब हड़बड़ी और हो-हल्लेका निराकरण किया है।

अनुचित दस्तंदाजी

असम के अधिकारी, साफ मालूम होता है, बड़े प्रदर्शनों और बड़ी सभाओंके आदी नहीं हैं। उन्होंने सभाएँ आदि करनेवालोंको सार्वजनिक स्थानोंका उपयोग करनेकी भी इजाजत नहीं दी। नौगाँव के अधिकारियोंने तो अपनी कार्रवाईसे लोगोंको एकदम चिढ़ा ही दिया। एक फुटबालके मैदान में सभा के लिए मचान बनाने और उसपर शामियाना खड़ा करनेकी तजबीज की गई थी। पर वहाँके डिप्टी कमिश्नरने ऐसा नहीं होने दिया। तुर्रा यह कि पहले मैदानके उपयोगकी अनुमति देकर उसने बादमें शामियाना उखड़वा दिया। अब इसका कारण सुनिए। आप फरमाते हैं कि मचान बनाकर कमेटी के अध्यक्षने हुक्मकी मंशाके खिलाफ कार्रवाई की। कमेटीने लाचार होकर अपनी सभा एक खानगी जगहमें की। इतना ही नहीं; डिप्टी कमिश्नरने स्टेशन जानेवाले लोगोंपर भी पाबन्दियाँ लगाने की कोशिश की। उसने उन चुने हुए लोगोंके नाम माँगे जो प्लेटफॉर्मपर जानेवाले थे। उपद्रवोंके डरसे उसने किसी किस्मका जुलूस भी नहीं निकलने दिया। सच पूछो तो मैंने भीड़का व्यवहार असममें जितना संयत और शिष्ट पाया उतना किसी दूसरी जगह नहीं पाया। वे प्रेमके प्रदर्शनके प्रसंग में सीमाका उल्लंघन नहीं करते। कोई भी अनुभवी अधिकारी यह समझ सकता था कि प्रेमभावसे प्रेरित इन प्रदर्शनोंसे, उनमें शोर-गुल चाहे जितना हो, दंगा-फसाद होनेका कोई डर नहीं हो सकता। लेकिन असम ऐसा प्रान्त है जहाँ, मुझे मालूम हुआ है, अधिकारी जनतामें किसी तरह की जागृतिका होना सहन नहीं करते। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। तेजपुर में एक अधिकारीने कुछ मकान उन मकानोंमें रहनेवाले लोगोंसे जबरदस्ती और एकदम इस कारण खाली करा लिये कि उन मकानवालोंकी भैंसोंसे उसके खेलमें खलल पड़ता था। युद्ध के दिनोंमें एक दूसरे अधिकारीने सीमापर रहनेवाले कूकी नामके कबीले के लोगों में हत्याकाण्ड मचा दिया; उसने उन्हें भेड़-बकरियोंकी तरह काट डाला । न स्त्रियोंको छोड़ा, न बच्चोंको। मुझे मालूम हुआ है कि

  1. १९०९ में; हिन्द स्वराज्य पुस्तिका सन् १९०९ में ही लिखी गई थी।