पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसके बाद, दो अनुच्छदोंमें उन्होंने यह भी बताया है कि इस स्वदेशी प्रचारका मुकाबला किस तरह किया जाये --(१) सभाएँ की जायें और (२) जो व्यापारी बहिष्कार के खिलाफ हों उन्हें नियत समयपर कलेक्टरके दफ्तर में बुलाया जाये। मद्रास सरकारने तो इससे भी बढ़कर अपनी कानूनी-शेखी बघारनेवाला एक परिपत्र निकाला है। इन हुक्मनामोंका मतलब साफ है। सरकार व्यापारियों और दूसरे लोगोंपर दबाव डालना चाहती है जिससे वे बहिष्कारमें साथ न दे सकें। अब नीचेके हुक्काम इसमें इतनी आजादीसे काम लेंगे जितना कि उन परिपत्रोंके निकालनेवालोंने सोचा भी न होगा। परन्तु अब देशके सौभाग्यसे हाकिमोंकी इन धमकियोंका असर लोगोंपर बिलकुल ही नहीं या बहुत थोड़ा होता है और हाकिम लोग दबे-छुपे अथवा खुलेआम न्याय-नीतिको ताकमें रखकर अथवा भलमनसीके साथ चाहे कितना ही विरोध करें, स्वदेशी-आन्दोलन तो आगे बढ़ता ही रहेगा।

हाकिम लोग इतने अज्ञानी और हठीले हैं कि जिस अव्यवस्था और लूटमारका डर उन्हें हो रहा है उसको टालनेका रामबाण उपाय वे नहीं करते; और वह उपाय यही है कि स्वदेशी प्रचारमें वे लोगोंका साथ दें और देशी माल तैयार करनेमें प्रोत्साहन दें। पर विलायती कपड़ोंके खिलाफ उठाये गये इस आन्दोलनको वांछनीय और आवश्यक समझना तो एक ओर रहा, वे तो उलटा उसे दबाने योग्य बुराई समझते हैं। और फिर भी जब में इस शासन-व्यवस्थाको, जो कि जनताके सद्भावपूर्ण आन्दोलनको रोकना चाहती है, "शैतानी" कहता हूँ तो शिकायत की जाती है। देशी कपड़ोंकी तंगी यहाँ क्यों होनी चाहिए ? क्या हिन्दुस्तानमें कपास काफी नहीं है ? क्या यहाँ ऐसे स्त्री-पुरुषोंकी संख्या काफी नहीं है जो सूत कात सकते हैं और कपड़ा बुन सकते हैं ? क्या यह मुमकिन नहीं है कि जरूरतके लायक तमाम चरखे थोड़े ही दिनों में बनकर तैयार हो जायें ? हरएक घरमें जिस प्रकार अपना भोजन बनाया जाता है उसी प्रकार अपना कपड़ा भी क्यों नहीं तैयार होना चाहिए ? अकालके दिनोंमें क्या अकाल-पीड़ितोंको कच्चा अनाज बाँटना ही काफी नहीं है ? तो फिर, जो लोग कपड़ेके मोहताज हैं उन्हें कोरी कपास ही देना काफी क्यों न होना चाहिए ? तब फिर कपड़ेकी तंगीका यह पाखण्ड-भरा या झूठमूठका शोर क्यों मचाया जाता है जब कि कल-कारखानोंकी सहायताके बिना ही भारतमें एक महीने के अन्दर उसकी जरूरतके मुताबिक काफी कपड़ा बन सकता है ? लोग बेचारे अबतक जानबूझकर अथवा बे-जाने-बूझे ही अँधेरेमें रखे गये हैं। उन्हें जो यह विश्वास रखना सिखाया गया है कि अपनी जरूरत के मुताबिक कपड़ा हिन्दुस्तानके घरोंमें, प्राचीन समयकी तरह, नहीं बनाया जा सकता, बिलकुल गलत है। अगर अलंकारिक भाषामें कहें तो वे पहले अपंग बना दिये गये हैं और फिर उन्हें विलायती या मिलके बने कपड़ोंका सहारा लेनेके लिए बाध्य किया गया है। कितना अच्छा हो कि वे लोग जिनके यहाँ ये परिपत्र निकाले गये हैं, इसका योग्य और गौरवपूर्ण उत्तर दें। और वह उत्तर यही हो सकता है कि वे फौरन अपने सारे विलायती कपड़े जला डालें या बाहर भेज दें और साहसपूर्वक यह प्रतिज्ञा कर लें कि अपनी जरूरतके लायक हम खुद ही कातेंगे और खुद ही बुनेंगे। निकम्मे और सुस्त आदमीको छोड़कर हरएकके लिए ऐसा करना बायें हाथका खेल है।