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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और विश्वासशील तुर्क हमेशा इंग्लैंड के वायदोंपर भरोसा रखते रहे। लॉर्ड पामर्स्टनके जमाने में टर्की के समर्थनका कारण उन्हीं के शब्दों में यह है, "हम टर्कीका समर्थन अपने हितकी खातिर ही करते हैं।" जब यह महत्वपूर्ण कारण न रहा तब टर्कीका सौदा कर दिया गया। १८७७ में बलिन कांग्रेस के अवसरपर इस बातका भंडाफोड़ हो गया कि ब्रिटेनने टर्कीसे साइप्रस द्वीप ऐंठ लिया था। डिज़रायली और सैलिस्बरी इन दोनों अंग्रेज राजदूतोंने कांग्रेससे यह भेद छुपा रखा था, हालांकि उनका कर्त्तव्य उसे गुप्त न रखकर प्रकट कर देना था। इस तरह, "उन्होंने झूठका अपराध किया--सीधे और लिपिबद्ध झूठका!" इस भेदके प्रकट हो जानेसे क्या टर्कीको साइप्रस वापस मिल गया ? बिलकुल भी नहीं । किन्तु इंग्लैंडके इस व्यवहारसे फ्रांस बहुत नाराज हुआ था । इंग्लैंडने ज्यों ही पहला अवसर उसके हाथ आया, ट्यूनिसपर कब्जा करनेका उसका अधिकार मानकर, यह स्वीकार करके कि सीरियामें अपने स्वार्थ की दृष्टिसे उसकी दिलचस्पी है और मिस्रकी आर्थिक लूट-खसोटमें उसको सम भाग देकर उसे सन्तुष्ट कर दिया। पूर्वी देशोंकी और उत्तरी अफ्रिकाकी स्वतन्त्रताके विरुद्ध हमारी पुश्त में हुए अत्याचारोंमें से आधेका मूल साइप्रस सम्बन्धी षड्यन्त्रमें देखा जा सकता है। श्री ब्लंटका यह कहना कोई विचित्र बात नहीं है। डा० सैयद महमूदने इंग्लैंड की मिस्र तथा ट्रिपोली और बालकन युद्ध-सम्बन्धी विश्वासघातपूर्ण कार्रवाइयोंका इतिहास प्रस्तुत किया है और साफ-साफ दिखाया है कि टर्कीको इंग्लैंडके साथ उसकी सन्धिसे लगभग बाहर धकेल दिया गया था। तब क्या आश्चर्य कि कोई मुसलमान अंग्रेज मंत्रियोंके मैत्रीपूर्ण वचनोंपर विश्वास नहीं करता ? यदि वे टर्की और भारतके प्रति न्याय कराने में अंग्रेजोंको विवश किये बिना चैन से बैठ जायें तो वे इस्लाम धर्मके अनुयायी होनेका दावा खो बैठेंगे।

पंजाबके मुकदमे

मौलवी सैयद हबीबको तीन सालका सपरिश्रम कारावासका दण्ड दिया गया है -- प्रकट रूपसे उनके 'सियासत' नामक पत्र में उनके लेखों के कारण, परन्तु वास्तवमें मुसलमानोंपर उनके प्रभाव के कारण। श्री जफरअली खाँके पुत्र श्री अख्तर अली खाँ और उनके एक सम्बन्धी श्री गुलाम कादिरपर मुकदमा चल रहा है। परिणाम तो अभीसे निश्चित है। इस तरह उन सभी विशिष्ट मुसलमान और सिख असहयोगियोंको, जिन्हें सरकार अपने रास्तेका काँटा मानती है, रास्तेसे हटा दिया जायेगा। वे माफी माँगने को तैयार नहीं हैं और न अपने शब्द ही वापस लेंगे, क्योंकि वापस लेनेको कुछ है ही नहीं। उनके लेखों में मैत्रीभावका अभाव अवश्य था। परन्तु असहयोगके नामको सार्थक करनेवाले किसी भी पत्र द्वारा [ सरकारके प्रति] अमैत्री भावका प्रचार तो होना ही चाहिए। अतः इन महानुभावों को मैं उनके इस सुअर्जित मानपर बधाई देता हूँ| मैं यही आशा रख सकता हूँ कि मुसलमान और सिख स्वदेशी कार्यक्रममें अपना योगदान पूरा करते हुए सरकार के इस कदम का सम्मान करेंगे। इन मुकदमों और दण्डों के लिए जनता अपनेको तभी सत्पात्र सिद्ध कर सकेगी जब वह इतनी शक्ति पैदा करे कि इन मित्रोंकी रिहाई अवधिसे बहुत पहले ही हो जाये।