पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जीवनमें हमेशा हुआ करती है; बल्कि उनमें वे बातें भरी रहती हैं जिनसे वे बिलकुल अपरिचित होते हैं। पाठ्य-पुस्तकोंके द्वारा लड़का यह नहीं जान पाता कि गृह-जीवनमें कौनसी बात ठीक है और कौनसी बात अनुचित। उसे ऐसी शिक्षा कभी नहीं दी जाती जिससे उसके मनमें अपने पास-पड़ोसियोंके विषयमें अभिमान जाग्रत हो। पढ़ाई-लिखाईमें वह जितना ही आगे बढ़ता जाता है वह अपने घरसे उतनी ही दूर होता जाता है -- यहाँतक कि अपनी शिक्षाकी समाप्तिके दिनतक अपने आसपासवालोंसे उसका चित्त हट जाता है। गृह-जीवनमें उसे आनन्द नहीं आता। गाँवोंके दृश्योंका उसके लिए होना न होना बराबर है। उसीकी सभ्यता उसे निःसत्व, जंगली, अंधविश्वासोंसे भरी हुई और सारे अमली कामोंके लिए निकम्मी बताई जाती है। यह शिक्षा इस ढंगसे दी जाती है कि विद्यार्थी अपनी परम्परागत संस्कृतिसे विमुख हो जाये| इतना होनेपर भी, आज शिक्षित लोग राष्ट्रीयतासे जो पूरी तरह हीन नहीं हो गये हैं उसका कारण यही है कि उनके दिलमें प्राचीन संस्कृतिकी जड़ इतनी गहरी जम चुकी है कि वह, उसके विकासमें बाधा पहुँचानेवाली शिक्षाके द्वारा भी, बिलकुल नष्ट नहीं हो सकती। यदि मेरा वश चलता तो मैं अवश्य ही आजकी बहुतेरी पाठ्य-पुस्तकें जलवा डालता और ऐसी पाठ्य-पुस्तकें लिखवाता जो गृह-जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाली तथा उसके अनुरूप होतीं, जिससे लड़का ज्यों-ज्यों उन्हें पढ़े त्यों-त्यों अपने आसपास के जीवन की ओर अधिक आकर्षित होता जाये और उसमें हिस्सा लेकर उसे प्रभावित करे।

दूसरे, और देशोंके विषयमें चाहे जैसा हो, भारतमें तो, जहाँ ८० फीसदीसे भी ज्यादा लोग खेती करनेवाले और १० फी सदी उद्योग-धन्धा करनेवाले हैं, केवल साहित्यिक शिक्षा देना और लड़के-लड़कियोंको अपने आगेके जीवनमें हाथसे काम करनेके अयोग्य बना देना एक जुर्म है। मेरी तो बेशक यही धारणा है कि अब चूंकि हमारा अधिकांश समय अपनी रोजी कमानेके उद्योगमें जाता है, हमारे बालकोंको लड़कपनसे ही परिश्रमको गौरवकी दृष्टिसे देखनेकी तालीम दी जानी चाहिए। हमारे बालकों को ऐसी शिक्षा हरगिज न दी जाये जिससे वे मेहनतको हिकारतकी नजरसे देखने लगें। कोई वजह नहीं कि एक किसानका लड़का मदरसेमें तालीम पाकर निकम्मा बन जाये और खेतोंपर काम न करे। हमारे मदरसोंके लड़के हाथका काम करना घृणित नहीं तो हेय तो समझते ही हैं। यह दुःखकी बात है। इसके सिवा, यहाँ हिन्दुस्तान में, अगर हम यह उम्मीद करें, जैसी कि हमें जरूर करनी चाहिए, कि मदरसा जाने योग्य उम्रका हरएक लड़का और लड़की मदरसे जाये तो हमारे पास आजकी प्रथा के अनुरूप उनकी शिक्षा के लिए खर्च के साधन नहीं हैं और न करोड़ों माता-पिता उतनी फीस ही देनेकी स्थितिमें हैं जो आज लगाई जाती है। इसलिए शिक्षाको यदि अधिक व्यापक करना हो तो फीस न लगानी चाहिए। मेरा खयाल है कि आदर्श शासन व्यवस्था में भी हम २ अरब रुपये जो कि तमाम मदरसे जाने लायक उम्र के लड़के-लड़कियोंकी शिक्षा के लिए दरकार हैं, खर्च न कर सकेंगे। इससे यह नतीजा निकलता है कि हमारे बालक जो कुछ शिक्षा ग्रहण करें उसका सारा या अधिकांश भाग वे "परिश्रम" के रूपमें अदा करें। और ऐसा सार्वत्रिक काम जो फायदेमन्द हो,