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राष्ट्रीय शिक्षा

मेरे खयालमें तो हाथ-कताई और हाथ-बुनाई ही हो सकता है। परन्तु मेरे कथनकी सिद्धिके लिए यह बात कोई महत्व नहीं रखती कि हम सूत-कताईका ही अवलम्बन करें अथवा किसी दूसरे कामको करें, बशर्ते कि उसमें लाभ होते रहनेकी गुंजाइश हो। लेकिन बात केवल इतनी ही है कि जाँच करनेपर ऐसा ही मालूम होगा कि दूसरा ऐसा कोई धन्धा नहीं है जो कपड़ा बनानेसे सम्बन्धित क्रियाओंसे बढ़कर अमली और फायदेमन्द साबित हो और जो बहुत बड़े पैमानेपर किया जा सकता हो तथा सारे हिन्दुस्तान के मदरसोंमें दाखिल किया जा सकता हो।

हमारे जैसे दरिद्र देशमें हाथसे काम करनेकी तालीमसे दुहरा काम बनेगा। एक तो उससे हमारे बालकोंकी शिक्षाका खर्च निकलेगा और दूसरे, वे एक ऐसा धन्धा सीख जायेंगे जिसका वे चाहें तो अपनी जीविका के लिए आगेकी जिन्दगीमें सहारा ले सकते हैं। ऐसी प्रणालीसे हमारे बालक अवश्य ही आत्मावलम्बी होंगे। हम मेहनत-मजदूरीसे घृणा करना सीखें, इससे हमारा राष्ट्र जितना कमजोर होगा, उतना किसी और वस्तुसे नहीं।

अब मैं हृदयकी शिक्षा के सम्बन्ध में एक बात कहना चाहता हूँ। मैं नहीं मानता कि यह पुस्तकोंके द्वारा दी जा सकती है। यह तो सिर्फ शिक्षकके प्राणप्रेरक सहवासके ही द्वारा मिल सकती है। और, आरम्भिक तथा माध्यमिक पाठशालाओंमें भी, शिक्षा कौन लोग देते हैं ? क्या उन पुरुषों और स्त्रियोंमें निष्ठा और चारित्रिक बल होता है ? क्या खुद उन्होंने हृदयकी शिक्षा पाई है ? क्या उनसे यह उम्मीद भी की जाती है कि वे अपने सुपुर्द किये गये लड़कों और लड़कियोंके स्थायी गुणोंपर ध्यान रखें ? नीची कक्षाओं के मदरसोंके लिए मुर्दारिस तजवीज करनेका तरीका क्या शील चारित्र्यके विकासके लिए एक बड़ी भारी बाधा नहीं है ? क्या शिक्षक गुजर-बसरके लायक तनख्वाह पाते हैं ? और यह बात तो हम जानते ही हैं कि प्राइमरी स्कूलोंके शिक्षकोंका चुनाव, उनमें कितनी देशभक्ति है इसे देखकर नहीं किया जाता है। वहाँ तो सिर्फ वे ही लोग आते हैं जिनकी रोटीका सहारा कहीं दूसरी जगह नहीं होता।

अब रही शिक्षा के माध्यमकी बात। इस विषयपर मेरे विचार इतने विदित हैं कि यहाँ उनके दुहराने की जरूरत नहीं। इस विदेशी भाषाके माध्यमने लड़कोंके दिमागको शिथिल कर दिया है और उनकी दिमागी शक्तियोंपर अनावश्यक बोझ डाला है। उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है। मौलिक विचारों और कार्योंके लिए अयोग्य कर दिया है और अपनी शिक्षाका सार अपने परिवारवालों तथा जनतातक पहुँचाने में असमर्थ बना दिया है। इस विदेशी माध्यमने हमारे बच्चोंको अपने ही घरमें पूरा-पक्का परदेशी बना दिया है। वर्तमान शिक्षा-प्रणालीका यह सबसे बड़ा दुःखान्त दृश्य है। अंग्रेजी भाषा के माध्यमने हमारी देशी भाषाओंके विकासको रोक दिया है। यदि मेरे हाथ में मनमानी करनेकी सत्ता होती तो मैं आजसे ही विदेशी भाषाके द्वारा अपने देश के लड़के-लड़कियोंकी पढ़ाई बन्द करवा देता, और सारे शिक्षकों और अध्यापकोंसे यह माध्यम तुरन्त बदलवाता या उन्हें बरखास्त करा देता। मैं पाठ्य-पुस्तकोंकी तैयारीका इन्तजार न करता। वे तो परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आयेंगी। यह खराबी तो ऐसी है, जिसके लिए तात्कालिक इलाजकी जरूरत है।