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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विदेशी माध्यमके मेरे इस अटल विरोधके कारण ही लोग मुझपर यह अनुचित आरोप मढ़ते हैं कि मैं विदेशी संस्कृतिके या अंग्रेजी भाषा पढ़नेके खिलाफ हूँ। 'यंग इंडिया' में अक्सर मैंने यह विचार प्रतिपादित किया है कि मैं अंग्रेजीको अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और कूटनीतिकी भाषा मानता हूँ और इसलिए उसके ज्ञानको हममें से कुछ लोगों के लिए आवश्यक समझता हूँ। 'यंग इंडिया' के पाठकोंकी नजरसे यह गुजरा ही होगा। मैं यह जरूर मानता हूँ कि अंग्रेजी भाषामें साहित्यकी और विचारोंकी अत्यन्त समृद्ध निधियाँ प्राप्त हैं। अतएव जिन लोगोंको भाषाकी ईश्वरी देन हो उन्हें उसके सूक्ष्म अध्ययनके लिए मैं अवश्य ही उत्साहित करूँगा और उनसे यह अपेक्षा करूँगा कि वे अपने देशके लिए उसकी ज्ञान-राशिको देशी भाषाओंके द्वारा प्रकट करें।

दुनियासे अलहदा रहने या उसके और अपने बीच दीवार खड़ी करनेकी बात तो मैं कदापि नहीं कहता। यह तो मेरे विचारोंसे बड़ी दूर भटक जाना है। परन्तु हाँ, यह मैं जरूर अदबके साथ कहता हूँ कि दूसरी संस्कृतियोंके गुणका ज्ञान और मान अपनी निजी संस्कृतिके गुणके ज्ञान-मानके पीछे तो अच्छी तरह चल सकता है, पर आगे कभी नहीं। मेरा तो यह निश्चित मत है कि दुनियामें किसी संस्कृतिका भण्डार इतना भरा-पूरा नहीं है जितना कि हमारी संस्कृतिका है। हमने उसे जाना नहीं है, हम उसके अध्ययनसे दूर रखे गये हैं और उसके गुणको जानने और माननेका मौका हमें नहीं दिया गया है। हमने तो उसके अनुसार चलना करीब-करीब त्याग ही दिया है। बिना आचारके कोरा बौद्धिक ज्ञान वैसा ही है जैसा कि भोमिया लगाया हुआ मुर्दा। वह देखने में तो शायद सुन्दर दिखाई देता है परन्तु उसमें स्फूर्ति या प्रेरणा देनेवाली कोई भी बात नहीं। मेरा धर्म मुझे यह अनुज्ञा नहीं देता कि मैं दूसरेकी संस्कृतिको तुच्छता या अनादरकी दृष्टिसे देखूं ; उसी तरह वह इस बातपर भी जोर देता है कि मैं खुद अपनी संस्कृतिको भी मानूँ और उसके अनुसार चलूँ, क्योंकि ऐसा न करनेका अर्थ सामाजिक दृष्टिसे आत्महत्या कर लेना होगा।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १-९-१९२१