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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हूँ ? मुझे यह खयाल होता है कि कहीं में अपनेको एक "फैरिसी" की तरह यह कहते हुए कि "मैं तुझसे ज्यादा पवित्र हूँ" दूसरेसे श्रेष्ठ न समझने लगूँ। इससे पहले मेरे दिलमें कभी ऐसा खयाल नहीं उठा था।

यह तो आप जानते ही हैं कि जब-जब मेरे दिलको आपकी किसी बातसे चोट पहुँचती है तब-तब अपनी पुकार आपको पहुँचानेके सिवा मुझे कुछ और नहीं सूझता। और आपकी इस बातसे मुझे बड़ा दुःख हुआ है।

'माडर्न रिव्यू'के ये लेख जिन्हें में इसके साथ भेज रहा हूँ, मैंने बड़े उत्साह और हर्षके साथ लिखे थे क्योंकि मुझे यकीन हो गया था कि मैंने आपके जीवन के रहस्यका पता पा लिया है। परन्तु अब मेरा मन आपतक पहुँचकर पुकार मचाता है कि आपका यह काम हिंसापूर्ण, कुछका कुछ और अस्वाभाविक-सा हो रहा है। जब आपने अपने भाईको कुछ बेजा काम करते हुए पाया था तब आपका प्रेम उसके प्रति और भी बढ़ गया था। उसी तरह मेरे हृदयमें भी इस समय प्रेमका भाव जोरके साथ उमड़ रहा है। मुझे बताइये कि इसमें आपका क्या हेतु है ? 'यंग इंडिया' में अबतक इस सम्बन्ध में आपने जो कुछ कहा है[१] उससे मेरा जरा भी समाधान नहीं हुआ।

पत्र उनके स्वभावके अनुरूप है। जब कभी मेरे किसी कामसे उनको व्यथा होती है (और यह ऐसा पहला ही मौका नहीं है ) तभी वे मुझपर इस तरह पत्रोंकी भरमार करते हैं। उत्तरका रास्तातक नहीं देखते; क्योंकि यह तो हृदयसे हृदयकी और प्रेमसे प्रेमकी बातचीत है, बहस नहीं। यह एक व्यथित मित्रके हृदय के उद्गार हैं। और इसका कारण है विदेशी कपड़ोंका जलाया जाना।

जो बात एन्ड्रयूज साहबने प्रेम-भरी भाषामें कही है उसीको इससे पहले बहुत से लोग, जो मुझसे सहमत नहीं हैं, भद्दे, गुस्सा-भरे और ग्राम्य शब्दोंमें कह चुके हैं। एन्ड्रयूज साहब के शब्द प्रेम और दुःखसे भरे होने के कारण, मेरे दिलमें गहरे पैठ गये हैं और पूरा उत्तर पानेके अधिकारी हैं। परन्तु जिन लोगोंके शब्द क्रोध-भरे थे उन्हें वैसे ही अलग रख देना पड़ा --- कहीं चलते-चलते यों ही कोई बात कह दी तो भले ही। एन्ड्रयूज साहबके शब्दों में हिंसाका लेश नहीं है और ये प्रेमसे सने हुए हैं, इसलिए वे मुझपर असर कर गये हैं। दूसरे लोगोंके शब्द हिंसा और द्वेषसे युक्त थे, इसलिए कुछ भी असर न डाल सके और अगर मैं उलटके वैसा ही जवाब दे सकता होता या मेरी वैसा जवाब देनेकी आदत होती तो उनका गुस्सा-भरा ही जवाब मिलता। एन्ड्रयूज साहबका यह पत्र उस अहिंसाका नमूना है जो स्वराज्यको शीघ्र प्राप्त करनेके लिए आवश्यक है।

खैर; यह तो प्रसंगवश कह दिया। हाँ, विदेशी कपड़ोंको जलाने की आवश्यकता के विषयमें तो मेरा मत अब भी वैसा ही पक्का बना हुआ है। इसकी क्रियामें जाति-विरोधपर कहीं भी जोर नहीं है। अपने परिवार में अथवा चुने हुए मित्रोंकी मण्डलीमें

  1. देखिए खण्ड २०, पृष्ठ ४५०-५२, उप-शीर्षक “विदेशी कपड़े क्यों जलायें ?"।