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विनाशका नैतिक औचित्य

भी मैं ठीक ऐसा ही करता। मैं जो कुछ करता हूँ या जिसके करनेकी सलाह देता हूँ उसे मैं एक अचूक कसौटीपर कसता हूँ। कसौटी यह है कि मैं अपने अजीज और नजदीकी लोगोंके सम्बन्धमें भी ठीक वही काम करूँगा या नहीं ? इस विषयमें मेरे धर्मका, मेरे विश्वासोंका आदेश बिलकुल साफ है। चाहे मित्र हों चाहे शत्रु, मुझे तो सबके साथ एक ही सा रहना चाहिए। और यही विश्वास इस बातका कारण है कि मुझे अपने ऐसे कितने ही कार्योंपर यकीन होता है जिनसे अक्सर मेरे मित्र उलझन में पड़ जाया करते हैं।

मुझे याद है कि मैंने एक दफा एक बड़ी अच्छी दूरबीनको समुद्र में फेंक दिया था। क्योंकि उसके कारण मेरे एक प्यारे मित्रमें[१] और मुझमें बराबर बहस हुआ करती थी। पहले-पहल तो वे भी हिचकिचाये, लेकिन फिर उन्होंने समझ लिया कि हाँ, इस कीमती और सुन्दर चीजका भी नाश कर देना ठीक ही था, यद्यपि वह उन्हें एक मित्र द्वारा भेंट में दी गई थी। अनुभवसे मालूम होता है कि बड़ेसे बड़ा और बढ़िया तोहफा भी, अगर वह हमारी नैतिक उन्नतिमें बाधा डालता है तो जरूर ही नष्ट कर डालना चाहिए; उसमें जरा भी हिचकिचानेकी अथवा यह सोचनेकी जरूरत नहीं कि उसके बदले हमें क्या मिलनेवाला है। अगर घरको कीमतीसे कीमती पुरानी चीजों में भी प्लेगके जन्तु फैल जायें तो उन्हें "स्वाहा" कर देना क्या हमारा पवित्र कर्त्तव्य नहीं हो जाता है ? मुझे याद पड़ता है कि जब मैं नौजवान था, मैंने खुद अपनी धर्मपत्नीकी प्रिय चूड़ियाँ टुकड़े-टुकड़े कर डाली थीं। क्योंकि वे हमारे बीचमें मतभेदका कारण बन गयी थी। और, अगर मुझे ठीक-ठीक याद होता है तो वे चूड़ियाँ उसकी माँ की दी हुई थीं। मैंने यह काम घृणा या द्वेषके वश होकर नहीं, बल्कि प्रेम-वश किया, यद्यपि अब अपनी पकी उम्र में मैं देखता हूँ कि उसमें मेरा अज्ञान था; पर इस विनाशने हमको सहायता दी और हमारी जुदाई दूर की।

हाँ, अगर तमाम विदेशी चीजोंपर जोर दिया गया होता तो यह बात जातिका विरोध करनेवाली, संकीर्णतायुक्त और शरारत भरी होती। जोर तो सिर्फ तमाम कपड़ोंपर दिया जाता है। इस मर्यादाके कारण प्रस्तुत बहिष्कार एक बिलकुल अलग चीज बन जाती है। मैं यह नहीं चाहता कि अंग्रेजी लीवर घड़ियाँ या जापानकी वार्निश की हुई लकड़ी की सुन्दर वस्तुएँ भारतमें न आने पायें। लेकिन मुझे यूरपकी उम्दासे-उम्दा किस्म की शराब जरूर नष्ट करनी होगी, फिर चाहे वह कितने ही परिश्रम और कितनी ही खबरदारी के साथ क्यों न बनाई गई हो। शैतानका जाल बड़ी मायाके साथ बिछा रहता है और जहाँ कार्य और अकार्यका भेद इतना सूक्ष्म रहता है कि उसका पहचानना कठिन होता है वहाँ तो वह बहुत ही मोहोत्पादक हो जाता है, लेकिन भले और बुरेकी विभाजक रेखा तो फिर भी वैसी ही सुदृढ़ और अमिट बनी हुई है। उसकी सीमाका जरा उल्लंघन हुआ नहीं कि बस, निश्चयपूर्वक मौत समझिए।

भारतमें आज जाति-विरोध विद्यमान है। बड़ी ही कोशिशोंके बाद लोगों के दुर्विकारों-दुर्भावोंकी गतिको रोक रखना सम्भवनीय हुआ है। आम तौरपर लोगोंके

  1. हरमान कैलेनबैक; एक जर्मन वास्तुकार; दक्षिण आफ्रिकामें गांधीजीके सहयोगी।