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विनाशका नैतिक औचित्य

है। उसकी मजबूरीसे उत्पन्न सुस्तीको दूर करना है। असम 'गजेटियर' के रचयिता मि० ऐलनने १९०५ में कामरूपके विषय में लिखा था --

इधर कुछ वर्षोंसे लोग विदेशी कपड़ोंको पसन्द करने लगे हैं। यह परिवर्तन ऐसा है कि जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता; क्योंकि जो समय पहले करधोंपर बिताया जाता था उसमें अब कोई दूसरा उपयोगी काम-धन्धा नहीं किया जाता।

असमियोंसे मैंने यह बात कही और वे बहुत नुकसान उठानेके बाद, इन शब्दोंकी सच्चाईका अनुभव करते हैं। हिन्दुस्तानके लिए विदेशी कपड़ा वैसा ही है जैसा कि शरीर के लिए विजातीय द्रव्य। हिन्दुस्तान के आरोग्य-लाभ के लिए विदेशी कपड़ेको दियासलाई दिखाना उतना ही आवश्यक है जितना कि शरीर स्वास्थ्य के लिए विजातीय द्रव्यका नाश करना आवश्यक है। एक बार जहाँ आपने स्वदेशीकी अविलम्ब आवश्यकताको स्वीकार कर लिया कि फिर विदेशी कपड़ोंका अग्निसंस्कार किये बिना छुटकारा ही नहीं है।

और न हमें इसी बात से डरना चाहिए कि सर्वांगपूर्ण स्वदेशीकी भावनाका विकास करते हुए हम कहीं संकीर्णता और दूसरे लोगोंसे अपनेको अलग रखनेकी भावना न पैदा कर बैठें। बात यह है कि दूसरोंकी पवित्रताकी रक्षा करनेके पहले हमें स्वयं अपने शरीरको भोगसे होनेवाले विनाशसे बचाना चाहिए। भारत आज एक बिलकुल निर्जीव पिण्ड है, जो दूसरोंकी इच्छाके अनुसार संचालित होता है। आत्मशुद्धि अर्थात् संयम और त्यागके द्वारा उसमें प्राणका संचार होने दीजिए और वह स्वयं अपने लिए तथा सारी मनुष्य जाति के लिए एक वरदानरूप होगा। पर अगर लापरवाहीके के साथ उसे भोगलोलुप, उद्धत और लोभी होने दिया गया और फिर उसका उत्थान हुआ तो वह कुम्भकर्णके सदृश केवल संहार ही करेगा और अपने तथा मनुष्यजातिके लिए शाप-रूप हो जायेगा।

और जो मनुष्य स्वदेशी में दृढ़ विश्वास रखता है उसे “फैरिसी" की तरह खादी पहनकर ऐसा न सोचना चाहिए कि मैं औरोंसे श्रेष्ठ हूँ। "फैरिसी" तो अपने बड़प्पनके लिए सद्गुणोंको मानो आश्रय देता है। स्वदेशीकी दृष्टिसे खादी पहनना तो इतना स्वाभाविक होना चाहिये जैसे मनुष्यके लिए श्वासोच्छ्वास लेना। दूसरे लोग जो इसकी आवश्यकता या उपयोगिताके कायल नहीं हैं वे चाहे इसे अशुद्ध भावसे करें अथवा बिल्कुल इससे दूर रहें, पर हमें तो इसे एक स्वाभाविक और नित्यकर्म की तरह करना है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १-९-१९२१