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१८. पत्र : रैहाना तैयबजीको

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चटगाँव
१ सितम्बर, [ १९२१]

मेरी प्यारी रैहाना,[१]

तुम्हारा प्यारा पत्र मिला। तुम और माताजी दोनों सही हो और मुझे जरा भी सन्देह नहीं कि तुम ज्यादा ठीक हो। माताजीने व्यावहारिक समझदारीकी बात कही है। तुमने जीवनके कटु अनुभवोंसे सर्वथा अप्रभावित अपनी अन्तरात्मामें सहज उपजी बातको ज्योंका-त्यों व्यक्त कर दिया है। परित्याग किए हुए विदेशी वस्त्र मध्यवर्ग के लोगोंको नहीं दिये जा सकते। वह कोई स्वदेशी नहीं होगी। यदि लोग मुझे संत बताकर आराम से बरतरफ कर दें तो मेरा क्या बस है ? मैं जनतासे वह सब कुछ करनेको नहीं कहता जो मुझे संतके गुणोंसे विभूषित करे। मैं तो केवल लोगोंसे सैनिककी भावना अपनानेको कहता हूँ जो स्वराज्यके लिए अपरिहार्य है। यदि स्वराज्य हासिल करनेका अर्थ संत बनना है तो मैं चाहता हूँ कि हम सब संत बन जाएँ और तुम अपने मनोहारी ढंगसे माताजी के विरोधका शमन कर सकती हो। हमें बनियों जैसी नफा-नुकसान और सौदेबाजीकी भावना छोड़कर धर्म-सैनिकोंकी तरह शुद्ध त्याग करना चाहिए।

हमारे यहाँ सुन्दर रंगवाले बारीक वस्त्र पहले भी हुआ करते थे। तुम्हारी अहंतुष्टि या रुचिके लिए जो चीज जरूरी लगे उसके लिए तुम्हें काम करना चाहिए। आज तो केवल एक ही रुचि हो सकती है, दूसरी नहीं; और वह है स्वराज्यके लिए। इसके अलावा कुछ नहीं। यदि मेरा तर्क तुम्हारा समाधान कर सके तो मैं यह दायित्व तुमपर डालता हूँ कि तुम माताजीको समझाओगी और मुझे सूचित करोगी कि तुमने अपनी कपड़ोंकी अल्मारीसे सारा कूड़ा साफ कर दिया है। मैं इतवारको कलकत्ता पहुँच रहा हूँ और शायद १२ तक वहाँ रहूँगा। मेरा पता होगा : ४, पोलक स्ट्रीट।

हृदयसे तुम्हारा,
मो० क० गांधी

अंग्रेजी पत्र (एस० एन० ९६३४ ) की फोटो-नकलसे।

  1. अब्बास तैयबजीकी पुत्री।