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१९. पत्र : महादेव देसाईको

चटगाँव,
१ सितम्बर, [ १९२१]

भाईश्री महादेव,

पैन्सिलसे लिखा तुम्हारा एक लम्बा पत्र मुझे मिला है। तुम्हारे इस पत्रको पढ़नेमें मुझे तकलीफ हुई। कभी-कभी पैन्सिलसे लिखे हुए अन्य लोगोंके पत्र भी मुझे प्राप्त होते हैं और उन्हें पढ़नेमें मुझे दिक्कत होती है; इससे मेरी समझमें यह आ गया है कि पैन्सिलसे लिखे हुए मेरे पत्र भी लोगोंके लिए कष्टकर होते होंगे। मुझे यह आशंका तो थी ही कि पैन्सिलसे लिखना गुनाह है लेकिन अपनी विषम स्थितिको देखते हुए मैंने यह छूट ले ली थी। लेकिन जब दूसरा कोई यह गुनाह करता है तब मुझसे नहीं सहा जाता। तुमने तो गुनाह नहीं किया है, यह मैं जानता हूँ। तुम्हें एक प्रति अपने लिए रखनी थी। बहुत बार पहली कार्बन कापी अधिक साफ होती है।

विचार बदलता हूँ[१]। तुम मुझे पहले कलकत्तेमें मिलो और बादमें देवदासको[२] बुलाओ - - यही अधिक उचित जान पड़ता है। तुमने फिलहाल वहीं रहनेका निश्चय किया हो तो देवदासको तार कर देना। लेकिन मुझे ऐसा लगा कि मेरे साथ तुम सलाह-मशविरा कर लो, उसके बाद ही कुछ करना ठीक होगा; इसलिए मैं एक बिलकुल ही अलग प्रकारका तार[३] भेज रहा हूँ।

मलाबारमें जो कुछ हुआ उसका समाचार मैंने बादमें देखा। उसके सम्बन्धमें 'यंग इंडिया'[४] के लिए एक टिप्पणी लिखकर मैंने भेज भी दी है। तुम्हें उसकी एक प्रति भेजी होती तो अच्छा होता। तुम्हारे लेख तो मुझे कलकत्ता पहुँचनेपर ही देखनेको मिलेंगे|

मालवीयजी[५] अथवा कविके मनमें मेरे प्रति कोई ईर्षा-भाव है, यह बात तो मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता। दोनोंमें भीरुता है और दोनोंको अपने विचारोंके सम्बन्ध में अभिमान है। यदि अभिमानके साथ भीरुता न हो तो अभिमानको सहन किया जा सकता है। हम जिस दृष्टिसे असहयोगको देखते हैं, असहयोगियोंके दोषोंको दरगुजर कर देते हैं वैसा ये दोनों नहीं कर सकते और इसीलिए इसका विरोध करते हैं। इसके अतिरिक्त मेरे विचारोंकी नवीनता और सरलता उन्हें भ्रमित भी करती

  1. गांधीजीने यहां दो वाक्य लिखकर काट देनेके कारण यह लिखा है।
  2. १९००-१९५७; गांधीजीके सबसे छोटे पुत्र।
  3. यह उपलब्ध नहीं है।
  4. देखिए अगला शीर्षक।
  5. १८६१ - १९४६; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयके संस्थापक; १९०९ और १९१८ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष|