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२२. टिप्पणियाँ

धोखे से कैसे बचें ?

मुझे जगह-जगहसे पत्र मिल रहे हैं कि लालची लोग खादीके नामसे विदेशी अथवा मिलोंका बना कपड़ा बेच रहे हैं और वे उसके दाम भी बढ़ा देते हैं। मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं लगता। जब समस्त शासनतन्त्र ही धोखेकी नींवपर खड़ा है तब लोगोंसे दूसरी बातकी आशा कैसे की जा सकती है ? अदालतोंमें जायें तो धोखा, दुकानों में जायें तो धोखा, अस्पतालोंमें जायें तो धोखा और धारासभाओंमें जायें तो वहाँ भी वैसी ही हालत। इससे बचने के लिए ही तो असहयोग किया जा रहा है। हमारा असह्योग मनुष्योंसे नहीं, मनुष्यों के दुष्कर्मोसे है। किन्तु एक पापसे पीछा छुड़ाने पर दूसरे पापमें फँसनेका डर हमेशा ही रहता है। और जबतक मिलोंके जैसा कपड़ा लेनेकी इच्छा रहेगी और जबतक हमारा कपड़ा खुद अपनी आँखोंके सामने नहीं बुना जायेगा तबतक धोखा खानेका भय तो रहेगा ही। इसका सबसे आसान तरीका तो एक ही है और वह यह है कि हरएक गाँव अपनी जरूरतकी खादी खुद बना ले और शहरों के लोग वैसी ही खादी लें जो मिलोंके कपड़ों जैसी न लगे। उसपर कांग्रेसकी छाप लगी हो तो अच्छा। इतनी सावधानी रखनेपर भी धोखेका डर न रहेगा, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना तो अनिवार्य मानकर सहन ही करना होगा। यह जानने योग्य है कि धोखादेहीकी शिकायतें सिर्फ शहरोंसे ही आ रही हैं। मुझे आशा है कि कुछ समयमें ही लोग बम्बईसे खादी नहीं मँगायेंगे, बल्कि बम्बईवासी अपनी जरूरतकी खादी आसपाससे मँगायेंगे। गाँवोंसे जो खादी आयेगी उसमें धोखेकी गुंजाइश सम्भवतः कम होगी।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ४-९-१९२१


२३. असमके अनुभव -- १

देश और उसके निवासी

असमका तो मैंने सिर्फ नाम ही सुना था। जब में विलायतमें था तब मैंने मणिपुरकी चढ़ाईकी कहानी पढ़ी थी और तबसे मेरा यही खयाल हो गया था कि असम के लोग असभ्य और जंगली होंगे। इसीलिए मैंने 'हिन्द-स्वराज्य में उन्हें जंगली लिखा था। यह बात असमी भाइयोंको अखरती थी। हाकिमोंने उस वाक्यका दुरुपयोग भी खूब किया। और, जिसने असमियोंको जंगली लिखा, उस अज्ञानीको भला असमी लोग भी कैसे चाह सकते हैं। परन्तु लोग तो अब मनुष्यके हृदयको परखने लगे हैं; तब यह कैसे हो सकता है कि वे निर्दोष अज्ञानपर बुरा मानें ? तथापि मैंने, अपनी