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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मजदूरोंमें से किसीकी ताब नहीं कि वहाँ जा सके। उस बेचारेकी तो अर्जी भी शिलाँग तक पहुँचते-पहुँचते फटकर चिथड़ा हो जाती है।

कहाँ ब्रह्मपुत्र और कहाँ सरकार ?

ब्रह्मपुत्र इतनी विशाल नदी है कि वह नारीसे नर –- नदीसे नद हो गई है। फिर भी उसकी नम्रताका पार नहीं। हिमालयकी चोटीपर रहते हुए भी वह नीचे उतरकर लोगोंको सुखी करती है और अपनी छातीपर उठा-उठाकर हजारों मनुष्योंको और उनके माल असबाबको एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाती है। इस कारण सारा असम उसकी पूजा करता है। और मुझ जैसे भारतके ठेठ पश्चिमसे आनेवाले प्राणीका भी सिर अपने-आप उसके चरणोंपर झुक जाता है। पर हमारी सरकार अपोलो बन्दरपर[१] उतरकर बे-शुमार मजदूरोंकी, भापकी और बिजलीकी मदद लेकर, नीचेसे ऊपर चढ़कर, शिमला और शिलाँगपर जाकर विराजमान होती है और वहाँसे बैठे-बैठे लोगोंको घुड़कती है। फिर लोग बेचारे भयभीत होकर "बचाओ! बचाओ!" की पुकार लगायें तो इसमें कौन ताज्जुबकी बात है ? ब्रह्मपुत्र आश्वासन देता है। शिलाँगमें रहनेवाली सरकार ऊपर चढ़कर लोगोंको सताती है। इसीलिए असमियोंने सरकारकी सलामी --- उसका सहयोग —-- छोड़ दिया है। ब्रह्मपुत्र अगर मस्तीमें आकर लोगोंके खेतों और गाँवोंको डुबोने लगे तो लोग उससे दूर हटनेके सिवा और क्या कर सकते हैं ? सरकारके दावानलसे जलनेवाले लोग उससे भागें नहीं तो क्या करें ? असमी लोग समझ चुके हैं कि हमारे लिए तो, बस, असहयोग ही एकमात्र राज-मार्ग है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ४-९-१९२१

२४. पत्र : एस्थर मेननको[२]

दौरेपर
४ सितम्बर, १९२१

मेरी प्यारी एस्थर,

अपने पूर्वी बंगालके दौरेसे कलकत्ता वापस लौटनेपर मैंने देखा कि तुम्हारा पत्र कई रोज पहले वहाँ पहुँच चुका था।

मैं तुम्हारे और तुम्हारे पतिके लिए सुखी और सेवामय जीवनकी कामना करता हूँ।

मैं तुम्हारे पत्रके लिए उत्कण्ठित था और जानना चाहता था कि तुम कैसी हो।

  1. बम्बई में।
  2. यह पत्र एस्थरको डेन्मार्क ६० के० मेननके साथ उनके विवाहका समाचार सुननेके पश्चात् लिखा गया था।