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सम्पूर्ण गांधी वाड्मय

नहीं सोचा था कि भारतमें मेरे विषयमें कभी ऐसी बात कही या मानी जायेगी । मैं अपने ईसाई तथा अन्य पाठकोंको विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने किसी भी आदमीसे कभी ऐसी बात नहीं कही। इसके विपरीत मेरा विश्वास चालीससे भी अधिक वर्षोंसे अनाचारीके दुर्व्यवहारको जान-बूझकर बरदाश्त कर लेने और प्रतिकार न करनेमें रहा है और मैंने तदनुसार आचरण भी किया है। मेरे सार्वजनिक जीवनमें अनेक बार ऐसा हुआ है जब बदला लेनेकी क्षमता होते हुए भी मैंने बदला नहीं लिया और मित्रोंको भी यही सलाह दी कि बदला न लिया जाये । मेरा जीवन इसी नियमके प्रचारके लिए अर्पित है। जरतुश्त, महावीर, डॅनियल, ईसा मसीह, मुहम्मद, नानक आदि संसारके अनेक बड़ेसे-बड़े सन्तोंके वचनोंको मैंने पढ़ा है। मूसाने बदला लेनेकी बात तो कही है, किन्तु उसका यह अर्थ लगाना कि उन्होंने अपने अनुयायियोंको दाँतके बदले दांत तोड़नेका आदेश दिया है; उनके प्रति न्याय करना है अथवा नहीं सो निश्चय- पूर्वक नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि यह मेरी अभिलाषा-भर रही हो और उसीने इस विचारको जन्म दिया हो; किन्तु मेरा यह विचार जरूर है कि उस जमानेमें जब कि लोग खुले तौरसे शत्रुके खूनके प्यासे हुआ करते थे, मुसाने अपने अनुयायियोंसे यह कहा हो कि बदला ही लेना है तो उसी हदतक लो जितनी तुम्हारी हानि हुई है, अधिक नहीं। किन्तु में पाठकोंको धार्मिक विवादमें घसीटना नहीं चाहता । अहिंसा सभी कालोंमें मेरा सर्वोच्च और निर्विवाद सिद्धान्त रहा है और अब भी है तथा मेरी ईश्वरसे प्रार्थना है कि सदैव ऐसा ही रहे। फिर भी यह सच है कि असहयोगियों में हजारों व्यक्ति ऐसे हैं जिनके नजदीक अहिंसा एक मसलहत या ऐसी नीतिके रूपमें है जिससे वे हमेशा और हर हालतमें बँधे हुए नहीं हैं। उनका विश्वास है कि भारत आज जैसा कुछ है उसे देखते हुए उसके सामने अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त करनेकी खातिर अहिंसाके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। उनका यह विश्वास केवल इसलिए नहीं है कि भारतके पास कोई अस्त्र-शस्त्र या तत्सम्बन्धी प्रशिक्षण नहीं है बल्कि इसलिए भी है कि उसमें विभिन्न धर्मों और जातियोंके लोग रहते हैं इसलिए यदि उसके निवासी हर अवसरपर युद्धके देवताका आह्वान करने लगें तो आपसी झगड़ोंके सिवा और कुछ हाथ नहीं लगेगा। जब हमने पहले-पहल अहिंसाके सिद्धान्तको अंगीकार किया था, हमारे बड़ेसे-बड़े विचारक भी उस दिनकी अपेक्षा आज उसमें अधिक खूबियाँ देखने लगे हैं ।

इस सिलसिलेमें मेरा ध्यान 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित एक अनुच्छेदकी ओर भी दिलाया गया है। उसमें कहा गया है कि साधु सुन्दरसिंहने श्री गांधीके तरीकोंसे गहरी असहमति व्यक्त की और स्पष्ट शब्दोंमें यह भी कहा कि आपके तौर-तरीके भारतको तबाही और व्यर्थके कष्टोंकी ओर ले जानेके सिवा और कुछ नहीं कर सकते। मुझे खेद है कि उस साधुका नाम इस विवादमें इस तरह घसीटा गया है। परन्तु चूंकि ऐसा हो ही चुका है, साधु और उद्देश्यके प्रति न्याय करते हुए मुझे इतना जरूर कहना पड़ेगा कि जहाँतक मुझे याद आता है उन्होंने न केवल "स्पष्ट शब्दोंमें" मेरे तरीकोंसे असहमति तो दूर उसे पूरे तौरपर पसन्द करते हुए यह माना है कि भारतके