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२५. टिप्पणियाँ

[१० मार्च, १९२२ या उसके पूर्व]

निराशा

सविनय अवज्ञा बन्द होनेसे लोग बहुत निराश हुए दिखाई देते हैं। इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक तो यह कि लोग तत्काल स्वराज्य मिलनेकी जो आशा किये हुए थे उनकी वह आशा भंग हो गई और दूसरा यह कि लोग शान्ति-रक्षाकी आवश्यकता के बारेमें बेखबर थे।

यदि पहला कारण ठीक हो तो इससे यह प्रकट होता है कि लोग स्वराज्यका अर्थ ही नहीं समझे। स्वराज्य तो [हमारे मनकी] एक स्थिति है जिसका हमें स्वयं अनुभव करना है। उसे तो हम अपने बलसे ही प्राप्त करेंगे। यदि यह ठीक हो तो लोगोंके निराश होने का कोई कारण ही नहीं है। स्वराज्य हमारे प्रयत्नमें ही निहित है। यह अगर एक बार प्रयत्न करनेसे न मिले तो हम दो बार प्रयत्न करें, तीन बार करें और बार-बार करें। हम जैसे-जैसे प्रयत्न करते जायेंगे वैसे-वैसे आगे बढ़ते जायेंगे। हम सवा वर्षसे इस तरह जो प्रयत्न करते आ रहे हैं क्या वह व्यर्थं गया है?

निराशा उस मनुष्यको घेरती है जिसे अपनी दिशा नहीं सूझती। यदि हम जानते हों कि हमें शान्तिके मार्ग से ही स्वराज्य मिलेगा और हमें मालूम हो कि जहाँ हमने शान्ति समझी थी वहाँ तो अशान्ति निकली तो हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि सविनय अवज्ञाको स्थगित करनेमें ही हमारी प्रगति है। कोई सेना रास्ता साफ मानकर चले और आगे खाई आ जानेपर उसमें छलाँग मारकर कूद पड़े तो इसमें प्रगति है अथवा इसमें कि वह गलत रास्तेको छोड़कर सही रास्ता ढूंढ़े या खाईपर पुल बाँधने के लिए रुक जाये? इतिहास उस सेनाके बारेमें क्या कहेगा जो रास्तेमें खाई आ पड़नेपर उसके पास खड़ी हो जाये और निराश होकर उसे अपने आँसुओंसे भरने लगे?

असहयोगके बारेमें भ्रम

बराबर है। जब असहयोग सरदारको सलामी देना सरदार उसे लातें मारे, इस तरह निराश होना असहयोगको न समझने के आन्दोलन शुरू किया गया तब स्वराज्यकी नींव रखी गई। बन्द करनेवाला गुलाम क्या उसी दिन मुक्त नहीं हो गया? गालियाँ दे अथवा फाँसीपर चढ़ाये, इससे क्या? उसने तो सलामी देना बन्द कर ही दिया। उसे अपनी परतन्त्रताका भान हो गया है। अगर सरदार उसकी स्वतन्त्रताको स्वीकार नहीं करता तो इसमें गुलामका क्या जाता है? जैसे-जैसे सरदार उसका विरोध करता है वैसे-वैसे गुलामका बल बढ़ता है क्योंकि सरदारके विरोध करनेसे गुलामकी कसौटी होती है।