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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


यह पत्र में आपको कांग्रेसकी कार्य समितिके सभापतिके नाते अर्थात् हिन्दू-मुसलमान दोनोंके और सच पूछिए तो सारे भारतका नेता होनेके नाते लिखा रहा हूँ।

आपको लिखनेका एक कारण यह भी है कि आप मुसलमानोंके एक चोटीके नेता हैं; किन्तु इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि मैं मित्रके रूपमें आपकी बड़ी इज्जत करता हूँ। मुझे १९१५ से आपसे परिचयका सौभाग्य प्राप्त है। हमारे नित्य प्रति बढ़नेवाले सम्पर्कके फलस्वरूप में आपकी मैत्रीको एक निधि मानने लगा हूँ। निष्ठावान मुसलमान रहते हुए भी आपने अपने जीवनके द्वारा यह दिखला दिया कि हिन्दू-मुसलमानोंकी एकता क्या चीज है?

बिना हिन्दू-मुस्लिम एकताके हम अपनी आजादी प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात आज हम इतनी अच्छी तरह जानते हैं, जितनी कि इससे पहले कभी नहीं जान पाये थे। और मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि बिना इस मित्रताके भारतके मुसलमान खिलाफतकी वह सेवा नहीं कर सकते जो वे करना चाहते हैं। फूटसे तो हम हमेशा गुलाम बने रहेंगे। हिन्दू-मुस्लिम एकताको केवल किसी ऐसी सुविधापूर्ण नीतिके रूपमें नहीं अपनाया जा सकता जिसे अनुपयुक्त पानेपर चाहे जब छोड़ा जा सके। स्वराज्यके प्रति अरुचि उत्पन्न होनेपर ही इस एकताको तिलांजलि दी जा सकती है। हिन्दू-मुस्लिम एकताको हमें ऐसी नीतिके रूपमें ग्रहण कर लेना चाहिए जो किसी भी काल अथवा परिस्थिति में त्यागी न जा सके। साथ ही ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि यह एकता पारसी, ईसाई, यहूदी अथवा बलशाली सिख—जैसी दूसरी अल्पसंख्यक जातियोंके लिए त्रासदायक बन जाये। यदि हम इनमें से किसी एकको भी कुचलनेका विचार करेंगे तो किसी दिन हम आपसमें ही लड़ मरना चाहेंगे।

आपके प्रति मेरे घनिष्ठ होते जानेका खास कारण ही यह है कि मैं जानता हूँ कि आपका हिन्दू-मुस्लिम एकताके व्यापक अर्थमें विश्वास है।

मेरी राय में तो हम लोग जबतक अहिंसाको दृढ़ व्यवहार-नीतिके रूपमें नहीं स्वीकारेंगे, तबतक हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित होना अशक्य है। मैं व्यवहार-नीति इसलिए कहता हूँ कि अहिंसा-धर्मको हम हिन्दू-मुस्लिम एकताकी रक्षाके लिए स्वीकार कर रहे हैं। पर इसका मतलब तो यही होता है कि एक खास समयतक नहीं, परन्तु सदाके लिए सगे भाईकी तरह रहनेवाले तीस करोड़ हिन्दू-मुसलमानोंकी एकता सारी दुनियाकी शक्तिके साथ टक्कर ले सकती है और फिर उचित है कि वे अंग्रेज शासकोंसे अपना निपटारा कराने के लिए हिंसाके मार्गको ग्रहण करना केवल कायरताकी बात समझें। आजतक तो हम अपने भोलेपनके कारण उनसे और उनकी बन्दूकोंसे डरते रहे हैं। पर जिस घड़ी हम अपनी एकताका बल समझ लेंगे उसी घड़ी उनसे डरना और डरकर उनपर हाथ उठानेका विचार करना हमें बिलकुल नामर्दी लगने लगेगा। इसीलिए मैं इस बात के लिए आतुर और अधीर हूँ कि मैं अपने देशभाइयोंको जल्दी से जल्दी, कमजोरी नहीं बल्कि शक्तिके आधारपर खुदको अहिंसक मानने के लिए प्रेरित कर सकूँ। पर मैं और आप दोनों जानते हैं कि अभी हम शक्तिशालियोंकी अहिंसाको विकसित नहीं कर पाये हैं। और इसका कारण यही है कि अभी हम हिन्दू-मुस्लिम एकताको व्यवहार-नीति ही मानते रहे हैं—इससे आगे नहीं बढ़े।