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पत्र : हकीम अजमल खाँको

आज भी हमारे बीच एक-दूसरे के प्रति बड़ा अविश्वास और फलस्वरूप डर बना हुआ है। पर मैं निराश नहीं हूँ। हमने इस दिशामें जो प्रगति की है वह निस्सन्देह अद्भुत है। एक पूरी पीढ़ीका काम हमने डेढ़ बरसमें कर डाला है। पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है। क्या जनता और क्या शिक्षित समाज दोमें से किसीको भी अनायास ऐसा अनुभव नहीं हो पाता कि यह एकता हमारे लिए उतनी ही जरूरी है जितनी कि हमारे फेफड़ोंके लिए साँस।

पर मैं समझता हूँ कि उद्देश्यकी पूर्ति के लिए हमें संख्याकी अपेक्षा गुणपर निर्भर करना चाहिए। भारतके हिन्दू-मुसलमानोंकी एकतापर दीवानोंकी तरह विश्वास रखने-वाले यदि थोड़ेसे भी हिन्दू और मुसलमान हों तो उससे सारी जनतामें ऐक्यकी भावना फैलते देर नहीं लगेगी। हममें से कुछ लोगोंको प्रारम्भमें ही यह स्पष्ट रूपसे समझ लेना चाहिए कि मन, वचन और कर्मसे पूर्ण अहिंसाको अपनाये बिना हम अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओंकी पूर्तिकी दिशामें एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। इसलिए मैं आपसे और कार्य समिति तथा अ॰ भा॰ कां॰ कमेटीके सदस्योंसे सादर अनुरोध करता हूँ कि आप कृपा करके अपने बीच ऐसे कार्यकर्त्ताओंको न रहने दें जो पूरी तरह उक्त सारभूत सत्यको नहीं समझते। कहीं बहुमतके निर्णय मात्र से जीवन्त विश्वासका निर्माण सम्भव है?

मेरी दृष्टिमें तो सारे हिन्दुस्तानकी ऐसी एकताका साक्षात् प्रतीक और इसलिए राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाकी सिद्धिके लिए अहिंसाको अनिवार्य साधन माननेका साक्षात् प्रतीक भी निस्सन्देह चरखा अर्थात् खादी ही है। केवल वही लोग जो अहिंसावृत्ति के विकास तथा हिन्दू-मुसलमानोंमें चिरस्थायी एकता कायम करनेके कायल होंगे, नियम और निष्ठाके साथ चरखा कातेंगे। व्यापक कताई-बुनाई और खद्दरका उपयोग सच्ची एकता तथा अहिंसाका अकाट्य नहीं तो काफी ठोस सबूत तो होगा ही और साथ ही इससे हमारे आचरणमें भारत के करोड़ों मूक देशवासियोंके प्रति भाईचारेकी भावना दृष्टिगोचर होगी। यदि समूचे भारतवर्षके निवासी नित्यकर्म मानकर चरखा चलाने और सौभाग्य तथा कर्त्तव्यके रूपमें खादी पहननेके सिद्धान्तको अंगीकार कर लें तो देश में एकता स्थापित करने तथा उसमें नवजीवन संचरित करनेका इससे बढ़कर कोई दूसरा उपाय ही नहीं है।

यह चाहते हुए भी कि जिन लोगोंने अभी अपने खिताब नहीं छोड़े हैं वे खिताब छोड़ दें, वकील वकालत छोड़ दें, विद्यार्थी सरकारी स्कूल-कालेज छोड़ दें, परिषदोंके सदस्य परिषदें छोड़ दें, फौजी और गैर-फौजी सरकारी नौकर अपनी नौकरियाँ छोड़ दें फिर भी राष्ट्रसे विशेष जोर देकर कहना चाहता हूँ कि इस दिशा में अबतक जितना हो चुका है उसीको पक्का करने तक अपने प्रयास सीमित रखें; और देशसे मेरा यह भी आग्रह है कि जिस शासन तन्त्रको सुधारने या मिटानेका यत्न हम कर रहे हैं उसके साथ सहयोग करनेसे अपना हाथ खींचने में और अधिक शक्ति लगायें।

फिर काम करनेवाले लोग तो इने-गिने हैं। अतएव ऐसे समय जब कि ढेर सारे रचनात्मक काम हमारे सामने पड़े हुए हैं, मैं नहीं चाहता कि विध्वंसात्मक कार्य में हमारे एक भी आदमीका समय जाया हो। पर विध्वंसात्मक प्रचारमें समय और शक्ति