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भेंट : 'मैनचेस्टर गार्जियन' के प्रतिनिधिसे

हम हाथ कती और हाथ-बुनी खादी के सिवा कोई दूसरा कपड़ा पहन ही नहीं सकते। जबतक भारत इतना नहीं कर लेता, सविनय अवज्ञा व्यर्थ और स्वराज्य अप्राप्य हो जायेगा तथा खिलाफत व पंजाबके प्रति अन्यायोंका प्रतिकार कराना असम्भव होगा। यदि यह विश्वास आपके हृदयमें बैठ गया है, तो सूत कातते रहें और खद्दरका प्रयोग जारी रखें। कताईमें खूब कुशल बनें।

मोहनदासके वन्देमातरम्

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३०–३–१९२२
 

५५. भेंट : 'मैनचेस्टर गार्जियन' के प्रतिनिधिसे

साबरमती जेल
[१८ मार्च, १९२२ के पूर्व][१]

. . .अब हम दोनोंके बीच असहयोगके विषयमें बातचीत चली। मैंने गांधीजीसे पूछा कि करके पैसेकी घटनाके सम्बन्धमें ईसा मसीहने जो उत्तर दिया था उसको ध्यान में रखते हुए क्या आपका खयाल यह नहीं है कि असहयोगकी नीति ईसा मसीह के उपदेशोंके प्रतिकूल है?

उन्होंने उत्तर दिया :

चूंकि में ईसाई नहीं हूँ इसलिए ईसाई धर्मके सिद्धान्तोंके आधारपर अपने कामोंका औचित्य आँकनेको बाध्य नहीं हूँ। परन्तु वस्तुतः मेरे खयालसे इस मामलेके सम्बन्ध में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता कि ईसा मसीह असहयोगके सिद्धान्तके विरुद्ध थे। मेरे खयालमें तो उनके शब्दोंसे यही प्रकट होता है कि वे उसके पक्षमें थे।

मैंने इसपर आपत्ति करते हुए कहा, "आपकी बात मेरी समझ में नहीं आई।" निश्चय ही इसका अर्थ तो बिलकुल स्पष्ट है। "जो चीजें सीजरकी हैं उन्हें सीजरको दो" इस वाक्यका अर्थ यही तो है कि जो कुछ सरकारी अधिकारियोंको देय हो वह उनको देना हमारा कर्त्तव्य है। यदि इसका अर्थ यह नहीं है तो और क्या है?

श्री गांधीने कहा :

ईसा मसीह कभी किसी प्रश्नका उत्तर सीधे शब्दोंमें या सीधे-सादे ढंगसे नहीं देते थे; उनके शब्दों का अभिधार्थ इष्ट नहीं है। उनके उत्तर आशासे अधिक व्यापक होते थे, उनमें बहुत गहराई होती थी, और उनके पीछे कोई व्यापक सिद्धान्त रहता था। प्रस्तुत उत्तरमें भी ऐसी ही बात है। यहाँ उनका आशय यह कदापि नहीं है

  1. यह भेंट १८ मार्च, १९२२ से पहले हुई होगी। १८ मार्चको उनके मुकदमेकी सुनवाई हुई थी और उनको सजा सुनाई गई थी; देखिए "ऐतिहासिक मुकदमा", १८–३–१९२२।