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ऐतिहासिक मुकदमा

छिपाने की कतई नहीं है कि मौजूदा शासन व्यवस्थाके प्रति अप्रीतिकी भावनाका प्रचार करनेकी मुझे एक धुन सवार हो गई है। और विद्वान् एडवोकेट जनरलका यह कहना भी बिलकुल सही है कि अप्रीतिका प्रचार मैंने 'यंग इंडिया' को हाथमें लेने के बहुत पहले शुरू कर दिया था। अभी में बयान पढ़नेवाला हूँ उसमें इस न्यायालयके सम्मुख यह स्वीकार करना मेरा दुःखद कर्त्तव्य हो जाता है कि एडवोकेट जनरलने जो समय बताया है, यह प्रचार मैंने उससे भी बहुत पहले शुरू कर दिया था। यह बहुत ही दुःखद कर्त्तव्य है, पर मेरे कन्धोंपर जो जिम्मेदारी है उसे देखते हुए मुझे इसे पूरा करना ही होगा। विद्वान् एडवोकेट-जनरलने बम्बईकी घटनाओं, मद्रासकी घटनाओं और चौरीचौराकी घटनाओंके सिलसिले में मेरे सिर जो दोष मढ़ा है, मैं उस सबको स्वीकार करता हूँ। रात-दिन, सोते-जागते मैंने इसपर गम्भीरतासे विचार किया है और इसके बाद इसी निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि चौरीचौराके नृशंस अपराधोंकी या बम्बईके पागलपन-भरे कारनामोंकी जिम्मेदारीसे अपने-आपको अलग रखना मेरे लिए असम्भव है। उनका यह कहना बिलकुल सही है कि एक जिम्मेदार व्यक्तिकी हैसियतसे, जिसे अच्छी शिक्षा मिली है और जिसे इस दुनियाका अच्छा अनुभव है, मुझे अपनी हर कार्रवाईके नतीजोंको जानना चाहिए था। मैं यह जानता था कि मैं आगसे खेल रहा हूँ। फिर भी मैंने खतरा मोल लिया और यदि मुझे छोड़ दिया गया तो में फिर वही करूँगा।[१] आज सुबह मुझे ऐसा लगा कि जो कुछ मैं इस समय कह रहा हूँ यदि वह मैंने नहीं कहा तो मैं अपने कर्त्तव्यसे च्युत हो जाऊँगा।

मैं हिंसासे बचना चाहता था और बचना चाहता हूँ।[२] अहिंसा मेरे जीवनका प्रथम सिद्धान्त है और यही मेरा अन्तिम सिद्धान्त भी है। मुझे दोमें से एक चीज चुननी थी। मैं या तो एक ऐसी व्यवस्थाको स्वीकार कर लेता, जिसने मेरी समझसे देशको अपूरणीय क्षति पहुँचाई है या फिर में यह खतरा मोल लेता कि मेरे देशवासी जब मेरे मुँहसे सच्चाईको समझेंगे तो उनमें रोषका उन्माद उमड़ सकता है। मैं जानता हूँ कि मेरे देशवासी कभी-कभी उन्मत्त हो उठते हैं। मुझे इसका बहुत दुःख है और इसलिए मैं यहाँ किसी हलकी नहीं, बल्कि बड़ी से बड़ी सजाको स्वीकार करनेके लिए तैयार हूँ। मैं दयाकी प्रार्थना नहीं कर रहा हूँ, जुर्मको हलका करनेवाली किसी कार्रवाईको अपने बचाव के लिए पेश नहीं कर रहा हूँ। अतः कानूनकी दृष्टिसे जो एक सोच-समझकर किया गया अपराध है किन्तु जो मुझे एक नागरिकका सर्वोच्च कर्त्तव्य लगता है, उसके लिए मुझे जो बड़ीसे बड़ी सजा दी जा सकती है, में वही देने को कहता हूँ और उसे खुशी से स्वीकार करूँगा। न्यायाधीश महोदय, आपके सामने इस समय जैसा कि मैं अभी अपने बयानमें कहनेवाला हूँ, सिर्फ यही एक रास्ता है कि या तो आप अपने पद से इस्तीफा दे दें, या फिर यदि आपको यह विश्वास हो कि जिस व्यवस्थाको और जिस कानून के अमलमें आप सहायता पहुँचा रहे हैं वे लोगोंके लिए अच्छे हैं तो मुझे कड़ी से कड़ी सजा दें। ऐसे मत परिवर्तनकी मुझे आशा नहीं है[३],

  1. मुकदमेकी सरकारी रिपोर्ट में ये वाक्य नहीं हैं।
  2. मुकदमेकी सरकारी रिपोर्ट में ये वाक्य नहीं हैं।
  3. मुकदमेकी सरकारी रिपोर्ट में यह वाक्य नहीं है।