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ऐतिहासिक मुकदमा

थे। अधिकारियोंने इस दलके कामको मूल्यवान करार दिया। मैं इतना और कहूँगा कि जब १९१८ में दिल्ली में युद्ध परिषद् हुई और लॉर्ड चेम्सफोर्डने वहाँ सैनिक भरतीके लिए विशेष रूपसे अनुरोध किया, तब अपने स्वास्थ्यकी कोई परवाह न करके मैंने खेड़ा जिलेमें सैनिक भरती के लिए घोर प्रयत्न किया।[१] और मेरे प्रयत्नोंका फल आना शुरू हुआ था कि लड़ाई बन्द हो गई और इस आशय के आदेश निकाल दिये गये कि अब और रंगरूटोंकी जरूरत नहीं है। साम्राज्यकी सेवाके ये सारे प्रयत्न मैं इसी विश्वाससे प्रेरित होकर कर रहा था कि ऐसी सेवाके जरिये मैं अपने देश-भाइयोंको साम्राज्य में समानताका दर्जा दिला सकता हूँ।

मेरे विश्वासको पहला आघात रौलट अधिनियमसे लगा, जिसका उद्देश्य जनताको सभी प्रकारकी सच्ची स्वतंत्रतासे वंचित कर देना था। उस अधिनियम के विरुद्ध मुझे कर्त्तव्यवश एक तीव्र आन्दोलन छेड़ना पड़ा। उसके बाद पंजाबका काण्ड हुआ, जिसका आरंभ जलियाँवाला बागके हत्याकाण्डसे हुआ और अन्त पेटके बल रेंगने के आदेशोंमें, सार्वजनिक रूपसे लोगोंको कोड़े लगाने में तथा अन्य अकथनीय अपमानपूर्ण कृत्यों में हुआ। मैंने यह भी देखा कि भारतीय मुसलमानोंकी टर्कीकी अखण्डता तथा इस्लाम के पवित्र स्थानोंकी सुरक्षाके बारेमें प्रधान मन्त्रीने गम्भीरतापूर्वक जो वचन दिये थे उनके पूरे किये जानेकी सम्भावना नहीं बची। अनिष्टके इन लक्षणों और मित्रोंकी गम्भीर चेतावनियों के बावजूद, मैं १९१९ की अमृतसर कांग्रेस में सरकार के साथ सहयोग करने तथा मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारोंको अमल में लाने के लिए लड़ा।[२] तब भी में यही आशा कर रहा था कि अन्तमें प्रधान मन्त्री भारतीय मुसलमानोंको दिये गये वचनका पालन करेंगे, पंजाबके जख्मोंका इलाज होगा और ये सुधार अपर्याप्त और असन्तोषजनक होते हुए भी भारत के जीवन में आशाके एक नये युगके सन्देशवाहक सिद्ध होंगे।

लेकिन सारी आशाओंपर तुषारपात हो गया। शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि खिलाफत सम्बन्धी वचनका पालन होनेवाला नहीं है। पंजाब के काण्डपर लीपा-पोती कर दी गई। अधिकांश अपराधियोंको सजा नहीं दी गई, वे जहाँके-तहाँ डटे रहे। कुछको भारतीय खजानेसे पेंशनें मिलती चली गईं। इतना ही नहीं उनमें से कुछको इनाम अकराम तक दिये गये। मैंने यह भी समझ लिया कि ये सुधार किसी प्रकारके हृदयपरिवर्तन के सूचक नहीं हैं; ये तो भारतको और अधिक लूटने तथा ज्यादा दिनों तक गुलाम बनाये रखनेकी तरकीब भर हैं।

मुझे अनिच्छापूर्वक इस निष्कर्षपर पहुँचना पड़ा कि अंग्रेजी हुकूमतने राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों दृष्टियोंसे भारतको इतना असहाय बना दिया है जितना वह पहले कभी नहीं था। निःशस्त्र भारत आज यदि किसी आक्रमणकारीका सशस्त्र विरोध करना चाहे तो उसमें ऐसा करनेकी शक्ति ही नहीं है। और उसकी यह लाचारी इस हदतक पहुँच गई है कि हमारे कुछ अच्छे-अच्छे लोग भी आज यह मानते हैं कि भारतको औपनिवेशिक स्वराज्य पानेमें ही अभी पीढ़ियाँ लग जायेंगी। वह इतना गरीब हो

  1. देखिए खण्ड १४, पृष्ठ ४२२-२६।
  2. देखिए खण्ड १६, पृष्ठ ३७४।