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ऐतिहासिक मुकदमा

संगठित प्रदर्शन और दूसरी ओर जनताको प्रतिशोध अथवा आत्मरक्षाकी समस्त शक्तिसे वंचित रखनेका परिणाम यह हुआ है कि भारतके लोग निर्जीव बनकर रहे गये हैं और उन्हें ढोंग तथा पाखण्डकी आदत पड़ गई है। और इस भयंकर आदतके कारण प्रशासकों का अज्ञान और आत्मवंचना और भी बढ़ गई है। जिस धारा १२४ 'क' के अधीन सौभाग्यवश मुझपर आरोप लगाया गया है, वह भारतीय नागरिकोंकी स्वतन्त्रताका गला घोटने के लिए रची गई राजनीतिक धाराओंमें कदाचित सर्वोपरि है। लोगोंके मनमें कानूनके बलपर राजभक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती। न कानूनके सहारे उसका नियमन ही किया जा सकता है। यदि किसीके मनमें किसी व्यक्ति या प्रणालीके प्रति भक्ति नहीं है, तो जबतक वह हिंसाका इरादा न रखता हो अथवा उसे प्रोत्साहन या उत्तेजन न देता हो तबतक उसे अपनी अभक्तिको व्यक्त करनेकी पूरी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। किन्तु जिस धाराके अधीन श्री बैंकर और मुझपर आरोप लगाये गये हैं, वह धारा तो ऐसी है जिसके अनुसार अप्रीतिकी भावनाका प्रचार करना ही अपराध है। मैंने इसके अधीन चलाये गये कुछ मुकदमोंका अध्ययन किया है और मैं जानता हूँ कि भारत के कुछ बड़ेसे-बड़े लोकप्रिय देशभक्तोंको इसके अनुसार दण्डित किया गया है। इसलिए इस धाराके अधीन मुझपर जो आरोप लगाया गया है, उसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। मैंने अपनी अप्रीतिकी भावनाके कारणोंको यथासम्भव कमसे कम शब्दों में पेश करनेकी कोशिश की है। किसी भी अधिकारीके विरुद्ध मेरे मनमें कोई वैरभाव नहीं हैं और व्यक्तिके रूपमें सम्राट्के प्रति ऐसा कोई भाव रखनेका तो सवाल ही नहीं उठता। किन्तु जिस सरकारने कुल मिलाकर भारतका इतना अहित किया है जितना कि पहलेके किसी भी तन्त्रने नहीं किया, उसके प्रति अप्रीतिकी भावना रखना में एक श्रेयकी बात मानता हूँ। इस अंग्रेजी हुकूमतके अधीन भारत जितना निर्वीर्य हो गया है, उतना पहले कभी नहीं था। और चूंकि मेरी मान्यता ऐसी है, इसलिए इस तन्त्रके प्रति मनमें भक्ति रखना में पाप समझता हूँ। अतएव अपने खिलाफ सबूत में पेश किये गये लेखोंमें मैंने जो कुछ लिखा है उसे लिखना में अपना बहुत बड़ा सौभाग्य मानता हूँ।

असल में तो मैं यह मानता हूँ कि जिस अस्वाभाविक स्थितिमें आज इंग्लैंड और भारत दोनों आ पहुँचे हैं, उससे बच निकलनेके लिए असहयोगका रास्ता दिखाकर मैंने दोनोंकी सेवा ही की है। मेरी नम्र रायमें बुराईसे असहयोग करना भी उतना ही आवश्यक कर्त्तव्य है जितना आवश्यक कर्त्तव्य अच्छाईसे सहयोग करना है। किन्तु असहयोग के ऐसे प्रयोगोंमें अभीतक बुराई करनेवालों के विरुद्ध जान-बूझकर हिंसाका रास्ता अपनाया जाता रहा है। मैं अपने देश-भाइयोंको यह दिखाने की कोशिश कर रहा हूँ कि हिंसावृत्तिसे किया गया असहयोग अन्तमें बुराईको बढ़ाने में ही सहायक होता है; और चूंकि बुराई हिंसासे ही पोषित हो सकती है इसलिए यदि बुराईके साथ सहयोग बन्द करना हो तो हिंसावृत्तिको तिलांजलि देनी चाहिए। अहिंसाका मतलब है, बुराईसे असहयोग करने के फलस्वरूप मिलनेवाले दण्डको स्वेच्छासे स्वीकार कर लेना। इसलिए जो चीज कानूनकी नजरमें जान-बूझकर किया गया अपराध है, वह मेरी दृष्टिमें