पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२९
ऐतिहासिक मुकदमा

राजनीतिक उपदेशके स्वरूपको देखते हुए और जिन लोगोंको वह उपदेश दिया गया था उनमें से बहुतोंके स्वभावको देखते हुए, आप यह कैसे मानते रहे कि उसका अनिवार्य परिणाम हिंसा नहीं होगा।

भारत में ऐसे व्यक्ति इने-गिने ही होंगे जिन्हें इस बातका हार्दिक खेद न हो कि आपने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है कि कोई भी सरकार आपको जेलके बाहर नहीं रहने दे सकती। परन्तु स्थिति है यही। मेरी कोशिश यह है कि आप जिस दण्डके अधिकारी हैं और जो कुछ सार्वजनिक हित के लिए मुझे आवश्यक लगता है, उन दोनोंमें सन्तुलन रखूँ। दण्डका निर्णय करनेमें में एक ऐसे उदाहरणका अनुसरण करना चाहता हूँ जो बहुत-सी बातोंमें इसी मुकदमेकी तरह था और जिसका फैसला आजसे कोई बारह साल पहले किया गया था। मेरा अभिप्राय बाल गंगाधर तिलकके विरुद्ध इसी धाराके अधीन चलाये गये मुकदमेसे है। उन्हें जो दण्ड दिया गया और जो अन्तमें कायम रहा वह छः सालका साधारण कारावास था। मैं समझता हूँ कि यदि आपको श्री तिलककी श्रेणीमें रखा जाये, अर्थात् आरोपके हर मुद्देपर वो सालका साधारण कारावास और कुल मिलाकर छः सालकी सजा दी जाये, जिसे देना में अपना कर्त्तव्य समझता हूँ, तो आप इसे अनुचित नहीं समझेंगे। तो, यह सजा सुनाते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि यदि भारतमें घटनाक्रम सरकार के लिए यह सम्भव कर दे कि वह इस अवधिको घटा सके और आपको छोड़ सके, तो मुझसे ज्यादा खुशी और किसीको नहीं होगी ।

न्यायाधीशने श्री बैंकरसे कहा : मैं मानता हूँ कि आपने जो कुछ भी किया, वह एक बड़ी हदतक अपने नेताके प्रभाव में आकर किया। इसलिए में आपको जो दण्ड देना चाहता हूँ वह है : पहले दो अपराधों में से प्रत्येकके लिए छः मासका साधारण कारावास, अर्थात् एक वर्षका साधारण कारावास और तीसरे अपराधके लिए एक हजार रुपया जुर्माना, जिसे अदा न करनेपर छः मासका अतिरिक्त साधारण कारावास भोगना पड़ेगा ।

श्री गांधीने कहा :

मैं दो शब्द कहना चाहता हूँ। चूँकि आपने स्वर्गीय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकके मुकदमेकी याद दिलाकर मुझे गौरव प्रदान किया है, इसलिए मैं यह कहना चाहता हूँ कि उनके नामके साथ संयुक्त होना मेरी दृष्टिमें बहुत ही सौभाग्य और सम्मानकी बात है। जहाँतक खुद सजाका सवाल है, निश्चय ही यह मेरी दृष्टिमें हलकी से-हलकी सजा है और जहाँतक इस मुकदमेकी पूरी कार्यवाहीका सवाल है में यह कहे बिना नहीं रह सकता कि इससे अधिक सौजन्यकी आशा नहीं की जा सकती थी।

न्यायाधीशके अदालतसे उठते ही श्री गांधीके मित्र उनके चारों ओर सिमट आये और उनके पैर छूने लगे। बहुत-से स्त्री-पुरुष सिसकियाँ भर रहे थे। पर श्री गांधी

२३-९