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६१. बालपोथी

शुक्रवार, चैत्र कृष्ण ३ [१४ अप्रैल, १९२२][१]

शिक्षकोंसे[२]

इस बालपोथीको प्रयोग-रूप समझा जाये।

नरहरि[३], काका[४] और दूसरे शिक्षक इसे पढ़ जायें, और उन्हें पसन्द आनेपर ही आचार्य गिडवानीको[५] तथा बलुभाई[६] और दीवान मास्टरको[७] यह दिखाई जाये। वे पास करें तो अन्तमें आनन्दशंकरभाईके[८] पास भेजी जाये, और वे भी पसन्द करें तो छपाई जाये।

आनन्दानन्द[९], वालजी देसाई[१०], छगनलाल, मगनलाल, देवदास, जमनादास वगैरा भले इसे देख जायें। महादेवको भी इसकी नकल भेजी जा सके तो भेजी जाये।

यह तो स्वप्न में भी न सोचा जाये कि यह मैंने लिखी है, इसलिए इसे छपाना चाहिए। मेरी मेहनतका खयाल भी न किया जाये, क्योंकि मुझे तो इसके लिखने में आनन्द ही आया था। जिस ढंगसे टाल्स्टाय फार्म आदिमें मैंने बच्चोंको सिखाया था, उसी ढंगपर इसे लिखा है। वहाँ मैं 'माँ' बना था।

पहले तो तीस पाठ लिखनेका विचार था। लेकिन अधिक विचार करनेपर यह प्रतीत हुआ कि पोथीका छोटा होना ही अच्छा है। फिर चाहे बालक एक वर्षमें दो या तीन पोथियाँ पढ़ें।

नरहरि और काकाको उचित लगे, वैसे फेरफार करनेमें हर्ज नहीं।

  1. हकीम अजमलख के नाम अपने १४ अप्रैल, १९२२ के पत्रमें गांधीजीने इस 'बालपोथी' के लेखनकी समाप्तिका उल्लेख किया है। शिक्षकोंके नाम इस पत्रमें और 'सूचना' में लेखन-तिथि चैत्र कृष्ण ३ दी हुई है। यह तिथि १४ अप्रैल, १९२२ को ही थी। पुस्तक वर्षोंतक अप्रकाशित पड़ी रही और पहली बार नवजीवन ट्रस्ट द्वारा १९५१ में प्रकाशित की गई।
  2. गांधीजीने बालपोथीके साथ इसे पत्रके रूपमें भेजा था।
  3. नरहरि द्वारकादास परीख।
  4. काका कालेलकर।
  5. प्रो॰ आसूदोमल टेकचन्द गिडवानी, इलाहाबादके म्योर सेन्ट्रल कालेजमें प्रोफेसर थे और बादमें गुजरात विद्यापीठके आचार्य रहे।
  6. बलुभाई ठाकोर और जीवनलाल दीवान।
  7. बलुभाई ठाकोर और जीवनलाल दीवान।
  8. आनन्दशंकर बापूभाई ध्रुव (१८६९-१९४२); संस्कृतज्ञ, शिक्षाविद् और विद्वान्, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो॰ वाइस चांसलर (१९२०-३७)।
  9. स्वामी आनन्द, सन् १९१९ में नवजीवनके प्रथम प्रकाशनके समयसे कई वर्षोंतक नवजीवन मुद्रणालय व्यवस्थापक रहे।
  10. वालजी गोविन्दजी देसाई, गुजरात कालेज, अहमदाबादमें अंग्रेजीके अध्यापक थे; अपने पदसे इस्तीफा देकर वे गांधीजीके साथ हो गये और गांधीजीकी कई गुजराती पुस्तकका अंग्रेजीमें अनुवाद किया।