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बालपोथी


इस पोथीको छपानेका विचार किया गया है या नहीं, इस सम्बन्धमें अथवा पोथीके विषय में कुछ लिखना हो तो वह अंग्रेजीमें लिखा जाये। मैं मानता हूँ कि उस दशा में (जेलका) सुपरिटेंडेंट उसे आने देगा।

अगर छपानेका विचार हो तो इसमें चरखे आदिके चित्र देना ठीक होगा। कागज अच्छा लगाना चाहिए और अक्षर तो बड़े होने ही चाहिए।

हिन्दू धर्म के बारेमें लिखूँगा ही।[१]

मोहनदास गांधी

[पुनश्चः]

मेरे विचारमें इस बालपोथीके लेखकके नाते मेरा नाम प्रकाशित न करना ही ठीक होगा।[२]

सूचना

इस बालपोथीके पीछे कल्पना यह है कि विद्यार्थीने एक साल या इससे कम समय कातना सीखने में और बारहखड़ी, देवनागरी और प्राकृत तथा साधारण अंक सीखने में बिताया है।

'लघुशंका' और 'अपमान', इन दो शब्दोंको लाचारीसे बालपोथीमें जगह दी है। बालक 'पेशाब,' के बदले 'लघुशंका' जैसे सुन्दर शब्दका प्रयोग करें तो ठीक हो, यह समझकर ही उसे जगह दी है। 'अपमान' से अधिक आसान शब्द न मिलनेसे उसे रहने दिया है।

बारहवें पाठमें जो थोड़े कठिन शब्द आये हैं, वे जान-बूझकर रखे गये हैं।

इस पोथीकी रचनायें धारणा यह रही है कि बालक जो कुछ सीखें, उसपर अमल करें। ऐसी कोई चीज इसमें नहीं दी है, जिसका उन्हें रोज अनुभव न होता हो।

यह पोथी माता और बालकके बीच संवादके रूपमें लिखी गई है। बेशक इसमें कृत्रिमता है, क्योंकि आज भारतवर्षकी माताएँ बालकको शिक्षा देनेके अपने धर्मका पालन बहुधा नहीं करतीं और उसके लिए तैयार भी नहीं होतीं। इस आशासे कि आगे जाकर कुछ माताएँ तो बालकोंके प्रति अपने धर्मका पालन करेंगी, आदर्शके रूपमें इतनी कृत्रिमताको यहाँ स्थान दिया गया है। कल्पना यह है कि बालपोथी तीनसे छः महीने में पूरी हो जाये।

शिक्षकको चाहिए कि वह बालकोंसे हरएक पाठ सुन्दर अक्षरोंमें लिखवा ले।

पाठोंकी रचना यह मानकर की गई है कि शिक्षक इन्हें आधार मानकर अपने उत्साह के अनुसार इनको सजायेगा।

चैत्र वदी, ३
शुक्रवार

लेखक

  1. सन् १९२२ में गांधीजी जब जेल गये तो काकासाहबने उनसे जेलमें रहते हुए हिन्दू धर्मकी एक बालपोथी तैयार कर देनेका अनुरोध किया था।
  2. देखिए "पत्र : घरवदा जेलके सुपरिटेंडेंटको", १२–८–१९२२।