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पत्र : हकीम अजमलखाँको

दुर्भाग्यसे अरबी नहीं आती। इसलिए हमारा मेलजोल सुबहके अभिवादन तक ही सीमित है। इस त्रिभुजका आधार एक ठोस दीवार है और सबसे छोटी भुजा कँटीले तारकी एक बाड़ है, जिसमें लगा दरवाजा एक खुले, विशाल मैदानमें खुलता है। यह त्रिभुज चूनेकी एक रेखासे विभाजित है; पहले मेरे लिए उसका उल्लंघन वर्जित था। तब घूमने-फिरने के लिए मेरे पास कोई सत्तर फुट लम्बी पट्टी ही थी। छावनी मजिस्ट्रेट श्री खम्बातासे, जो जेलका मुआइना करनेवाले मजिस्ट्रेटोंमें से हैं, उस सफेद रेखाका जिक्र करते हुए मैंने कहा कि यह मानवीयता के अभावका एक उदाहरण है। उन्हें भी यह पाबन्दी पसन्द नहीं आई और उन्होंने ऐसी ही रिपोर्ट दे दी। अब इस त्रिभुजकी पूरी लम्बाई मेरे लिए खुल गई है, जिससे घूमने-फिरनेको लगभग १४० फुट लम्बी जगह मिल गई है। मेरी आँखें उस खुले मैदानपर लगीं हैं जिसका अभी जिक्र किया गया है। पर उसमें घूमने-फिरनेकी इजाज्जत देना शायद इतना अधिक मानवीय है कि मुझे उसका मिलना मुश्किल है। मैंने उन्हें यह सुझाया है कि यह देखते हुए कि सफेद रेखा गायब हो गई है, मेरे घूमने-फिरने के मामलेमें कँटीले तारकी बाड़की भी उपेक्षा की जा सकती है; पर सुपरिटेंडेंट के लिए यह एक जटिल समस्या है और वे अभी इसपर विचार कर रहे हैं।

हकीकत यह है कि मैं सबसे अलग रखा गया हूँ और किसीसे भी बातचीत नहीं कर सकता। धारवाड़ के कुछ कैदी इस जेल में हैं। इसी तरह बेलगाँवकी महान् विभूति गंगाधरराव, सक्खरके सुधारक वेरूमल बेगराज और बम्बईके एक सम्पादक ललित भी इसी जेलमें हैं। पर मैं इनमें से किसीसे भी नहीं मिल सकता। यदि मैं इन लोगों के साथ रहूँ तो इन्हें क्या नुकसान पहुँचा सकता हूँ, मैं नहीं जानता। ये भी निश्चय ही मुझे कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकते। हम लोग यहाँसे निकल भागनेका षडयन्त्र तो रचेंगे नहीं। यदि हम ऐसा षडयन्त्र रचें तो अधिकारियोंको दिलचस्पीका कुछ मसाला मिलेगा। यदि सवाल यह हो कि मैं उन्हें अपने विचारोंसे प्रभावित न करने पाऊँ तो वे सब पहलेसे ही इन विचारोंमें रँगे हुए हैं। यहाँ जेलमें मैं इनमें चरखेके लिए और ज्यादा उत्साह जरूर पैदा कर सकता था।

लेकिन मैंने आपसे अपने अकेलेपनका जो जिक्र किया वह शिकायत के तौरपर नहीं है। मैं इसमें खुश हूँ। स्वभावतः मैं एकान्त-प्रिय हूँ। खामोशी मुझे अच्छी लगती है। और मैं अध्ययनमें जुट सकता हूँ, जो मेरे लिए अमूल्य है पर जिसकी मुझे बाहर उपेक्षा करनी पड़ती थी।

लेकिन सभी कैदी तो अकेलेपन में रस ले नहीं सकते। यह एक बहुत ही अनावश्यक और अमानवीय बात है। दोष झूठे वर्गीकरणका है। सभी कैदियोंको एक तरहसे एक वर्ग में रख दिया जाता है और कोई भी सुपरिंटेंडेंट चाहे वह कितना ही दयालु क्यों न हो, अलग-अलग तरहके उन नर-नारियोंके साथ, जो उसकी निगरानी और देखरेख में होते हैं, तबतक न्याय नहीं कर सकता जबतक कि उसे पूरी स्वतन्त्रता न हो। इसलिए वह सिर्फ यही करता है कि उनकी शारीरिक सुविधाका ध्यान तो रखता है, लेकिन भीतरके इन्सानकी बिलकुल अवहेलना कर देता है।