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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वह स्वाभिमानी और भावुक लड़का फूट-फूटकर रोने लगा। मैं उसे बड़ी मुश्किलसे चुप करा पाया। उसे यह समझना चाहिए था कि मैं एक कैदी हूँ और इसलिए मुझे सुपरिटेंडेंट के सामने बैठने का कोई अधिकार नहीं है। राजगोपालाचारी और देवदासको कुर्सियाँ दी जा सकती थीं और देनी चाहिए थीं; पर निश्चय ही इसमें किसी तरहकी अशिष्टता दिखाने का उद्देश्य नहीं था। मेरा खयाल है कि सुपरिंटेंडेंट आम तौरपर मुलाकातोंके समय उपस्थित नहीं रहता। लेकिन मेरे मामलेमें, जाहिर है, वे कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते थे। मैं नहीं चाहता कि श्रीमती गांधी आयें और फिर वैसा ही कुछ हो, और न मैं यह चाहता हूँ कि कुर्सी देकर मुझपर विशेष कृपा की जाये। मेरी समझमें प्रतिष्ठा मेरे खड़े रहनेमें ही है; अभी हमें कुछ दिनतक उस समयका इन्तजार करना होगा जब अंग्रेज खुद-ब-खुद और सच्चे दिलसे जीवनके हर क्षेत्रमें हमारे प्रति उचित शिष्टतासे पेश आने लगेंगे। लोग मुझसे मिलने आयें इसकी मुझे भी इच्छा नहीं है और मैं चाहूँगा कि मित्र और सम्बन्धी अपने मनको काबू में रखें।[१] कामकाज की दृष्टिसे आवश्यक मुलाकातें हमेशा की जा सकती हैं, चाहे परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों या अनुकूल।

आशा है कि छोटानी मियाँने जो चरखे दानमें दिये थे वे पंचमहाल, पूर्वी खानदेश और आगरेकी गरीब मुसलमान औरतोंमें बाँट दिये गये होंगे। आगरेसे जिस मिशनरी महिलाने मुझे पत्र लिखा था, उसका नाम मैं भूल गया हूँ। कृस्टोदासको शायद याद हो।

उर्दूकी किताब में जल्दी ही खत्म करनेवाला हूँ। उर्दूका एक अच्छा शब्दकोश और कोई एक किताब, जो आप या डा॰ अन्सारी सुझा सकें, पाकर मुझे बड़ी खुशी होगी।

शुएबसे कृपया यह कह दीजिए कि मैं उनके बारेमें निश्चिन्त हूँ।

आशा है आप अच्छी तरह होंगे। आपसे यह आशा करना कि आप अपनी शक्ति से अधिक काम नहीं करेंगे, एक असम्भव चीजकी आशा करना है। इसलिए मैं ईश्वरसे केवल यही प्रार्थना कर सकता हूँ कि वह आपको इस तमाम बोझके पावजूद स्वस्थ रखे।

प्रत्येक कार्यकर्त्ताको मेरा स्नेहाभिवादन।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

हस्तलिखित अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८०११) तथा यंग इंडिया, २८-२-१९२४ से।
  1. मित्र और सम्बन्धी तो गांधीजीसे यदा-कदा मिलने आते ही थे; मगनलाल गांधीकी ऐसी ही एक मुलाकात के लिए देखिए परिशिष्ट ३।