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६५. पत्र : यरवदा जेलके सुपरिंटेंडेंटको

यरवदा जेल
१२ अगस्त, १९२२

सुपरिंटेंडेंट
यरवदा सेंट्रल जेल
महोदय,

कुछ समय से मेरे तीन मामले विचाराधीन हैं।

(१) गत मई में मैंने अपने मित्र दिल्लीके हकीम अजमलखाँको अपना नियमित तिमाही पत्र लिखा था। सरकार उसे तबतक भेजने को तैयार नहीं हुई जबतक कि मैं उसके उन अंशोंको जिनपर उसे आपत्ति है, काट न दूँ। चूंकि मैं उन अंशोंका जेलकी अपनी दशासे घनिष्ठ सम्बन्ध मानता हूँ, इसलिए मैंने उन्हें हटाना उचित नहीं समझा। अतः मैंने सरकारको सादर यह सूचना दी कि यदि मैं अपने मित्रोंको अपनी दशाका पूरा विवरण नहीं दे सकता तो मैं उन्हें नियमित पत्र भेज सकनेकी छूट या अधिकारका उपयोग नहीं करना चाहता। साथ ही, मैंने अपने मित्रको एक संक्षिप्त पत्र लिखकर यह बताया कि मैंने उन्हें जो पत्र लिखा था उसे भेजनेकी अनुमति नहीं मिली है, और सरकार जबतक उन पाबन्दियोंको जो उसने लगाई हैं हटा नहीं लेती, मैं अपनी कुशल क्षेमसे सम्बन्धित कोई पत्र नहीं लिखूँगा। इस दूसरे पत्रको भी सरकारने भेजना स्वीकार नहीं किया और मैंने यह माँग की कि जिस तरह पहला पत्र मुझे लौटा दिया गया है, उसी तरह यह दूसरा पत्र भी लौटा दिया जाये।

(२) कर्नल डेलजीलसे गुजराती भाषाकी एक 'बालपोथी'[१] लिखनेकी अनुमति मिल जाने और यह आश्वासन प्राप्त हो जानेपर कि मैं अपने मित्रोंके पास उसे प्रकाशनार्थ भेजूँ तो कोई आपत्ति नहीं होगी, मैंने वह 'बालपोथी' लिखी और कर्नल डेलजीलको दे दी कि वे उसे साथके पत्रमें बताये गये पतेपर भेज दें। सरकारने इस पोथीको उक्त पतेपर भेजना इस कारण अस्वीकार कर दिया कि कैदियोंको उनकी संजाकी मीयादके दौरान पुस्तकें प्रकाशित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। मेरी इच्छा यह कदापि नहीं है कि उस पोथीपर प्रकाशक या लेखकके रूपमें मेरा नाम रहे। उसके साथ किसी भी रूपमें मेरा नाम जुड़ा न होनेपर भी, वह पोथी यदि प्रकाशित न की जा सकती हो तो मैं चाहूँगा कि वह मुझे लौटा दी जाये।

(३) सरकारने मुझे स्वयं ही यह सूचना देनेकी कृपा की थी कि मैं पत्रिकाएँ मँगा सकता हूँ। इसलिए मैंने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' का साप्ताहिक अंक, कलकत्ते से निकलनेवाला एक उच्च कोटिका मासिक 'मॉडर्न रिव्यू,' और हिन्दीकी एक पत्रिका 'सरस्वती' मँगाने की अनुमति माँगी। इनमें से अन्तिमकी अनुमति दे दी गई है।

  1. देखिए "बालपोथी", १४-४-१९२२।