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७४. पत्र : यरवदा जेलके सुपरिंटेंडेंटको

यरवदा जेल
१२ फरवरी, १९२३

सुपरिंटेंडेंट
यरवदा सेन्ट्रल जेल
महोदय,

मुझे अभी-अभी यह खबर मिली है कि मूलशीपेटाके कुछ आदमियोंसे बातचीत करनेके कारण भाई जयरामदासको[१] सजा दी गई है।[२] मैं यह पत्र उस सजाके विरुद्ध शिकायत करनेके लिए नहीं, बल्कि इसलिए लिख रहा हूँ कि उतनी ही अथवा उससे भी अधिक सजा मुझे दी जाये। इस माँग में भावना खिन्नताकी नहीं, बल्कि कहना चाहिए धर्म-मूलक है। क्योंकि नियम भंगका उनकी अपेक्षा मैं अधिक अपराधी हूँ। मैंने ही उनसे कहा था कि यदि उन्हें मूलशीपेटावाला कोई कैदी दिखे तो वे उससे कहें कि यदि वह सत्याग्रही होने का दावा करता है तो काम करनेसे इनकार न करे। भाई जयरामदास मेरे इस अनुरोधको अस्वीकार नहीं कर सके। मैंने उनसे यह भी कहा था कि आपके आज वहाँ पहुँचनेपर वे आपको सारी बात सुना दें। हम दोनोंके बीच जो कुछ हुआ वह मैं आपको कल बता देता। कल इसलिए कि सोमवार मेरा मौन-दिवस होने के कारण आप आज मुझसे मिलने नहीं आयेंगे। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यदि मुझे सजा होगी तो मैं उसका उलटा अर्थ नहीं लगाऊँगा। यदि मैं छूट जाऊँ और मुझसे कम अपराध करनेवाले को, यदि वह वस्तुतः अपराधी है, सजा दी जाये तो मुझे दुःख होगा।[३]

आपका आज्ञाकारी,
मो॰ क॰ गांधी

अंग्रेजी मसविदे (एस॰ एन॰ ८०२०) की फोटो—नकल तथा यंग इंडिया, ६-३-१९२४ से।

  1. जयरामदास दौलतराम (जन्म १८९२); सिन्ध प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीके तत्कालीन मंत्री, बादमें खाद्य एवं कृषि मन्त्री भारत सरकार; असमके राज्यपाल।
  2. जयरामदासजीने अपनी बैरकसे मूलशीपेटाके कैदियोंकी बैरकमें जाकर यह समझानेकी कोशिश की थी कि जेल के अनुशासनके रूपमें जो भी काम उन्हें सौंपा जाये वे उसे करें। जब वार्डरने इसकी सूचना उच्च अधिकारियोंको दी तो उन्हें नहानेके कुछ मिनटोंको छोड़कर शेष समय अपनी कोठरीमें ही बन्द रहनेका हुक्म दिया गया।
  3. यंग इंडिया, ६-३-१९२४ में यह पत्र छापते हुए गांधीजीने निम्नलिखित टिप्पणी दी थी : उपर्युक्त पत्रके उत्तर में सुपरिंटेंडेंट मेरी कोठरी में आये और उन्होंने मुझसे कहा कि उनके मनमें जयरामदासके प्रति जरा भी रोष नहीं है। उन्होंने (श्री जयरामदासने) जो कुछ किया है वह तो खुले तौरपर ही किया है, परन्तु नियमका जो भंग हुआ उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। उन्होंने कहा कि मुझे दूसरे कैदियोंको उकसानेके अपराधमें सजा नहीं दी जा सकती, क्योंकि सत्याग्रहियोंके साथ बातचीत करनेके लिए मैं हदके उस पार नहीं गया। सत्याग्रहियोंसे भाई जयरामदासकी बातचीतके फलस्वरूप एक विषम स्थिति टल गई। इस घटना के बारेमें जयरामदास दौलतराम कहते हैं कि "मेरे जरिये गांधीजीके हस्तक्षेपके परिणामस्वरूप मूलशीपेटाके कैदियोंपर सही प्रतिक्रिया हुई और जो काम उन्हें दिया गया उसे उन्होंने किया। कामसे लगातार इनकार करनेपर अधिकारियोंका इरादा उन्हें कोड़ोंकी सजा देनेका था। इससे बात और भी बढ़ती और मेरा खयाल है कि गांधीजीको और भी सक्रिय रूपसे हस्तक्षेप करना पड़ता तथा मामला और भी बिगड़ जाता।"