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१००. भेंट : 'युग धर्म'[१] के प्रतिनिधिसे

[५ फरवरी, १९२४ के पूर्व]

डाक्टर सुमन्तने[२] महात्माजीसे पूछा, आप जैसा संयमी मनुष्य रोग ग्रस्त क्यों हो जाता है? महात्माजीने उत्तर दिया :

यद्यपि मैं बहुत बरसोंसे खानपानमें संयम रखता आया हूँ किन्तु अभीतक जितना संयम होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है?

फिर उन्होंने कहा :

निश्चय ही मेरे शरीरको अधिक भोजनकी आवश्यकता नहीं है। वास्तवमें बात ऐसी है कि जो मनुष्य मानसिक कार्य करता है और जिसे बहुत एकाग्रचित्त होकर काम करना होता है उसे बहुत कम भोजनकी आवश्यकता होती है। मिताहार करनेसे कदाचित् मेरा वजन कम हो जाता, किन्तु स्वास्थ्य में सुधार ही होता।

महात्माजीने यह मत प्रकट किया कि जो लोग मानसिक कार्य करनेके अभ्यस्त हैं उनको भोजनमें वालकी कोई जरूरत नहीं है। अन्त्यजोंकी दशा सुधारनेके बारेमें उन्होंने कहा कि हमें गाँवोंमें डेरा जमाकर बैठ जानेकी जरूरत है। गुजरातके कार्यकर्त्ताओं में निराशा छा जानेकी बात में बिलकुल नहीं मानता।

महात्माजीने आगे चलकर कहा :

मैं केवल सत्यकी खोज करते-करते राजनीतिमें आ गया हूँ। जब मैं जेल गया था तो मैंने पूरे छः सालका कार्यक्रम बनाया था। मैंने इन्दुलालको दक्षिण आफ्रिकाके सम्बन्धमें थोड़ा-सा लिखा दिया है, किन्तु मुझे अपने 'गीता' सम्बन्धी विचार अभी लिखाने हैं। मैं यह भी बताना चाहता हूँ कि 'महाभारत' का संक्षेप कैसे किया जाये। अपनी आत्मकथा लिखनेका भी मेरा विचार है। मुझे अभी बहुत-कुछ काम करना है।

जब डा॰ सुमन्तने इंग्लैंडकी नई मजदूर सरकारको आलोचना करते हुए यह कहा कि अब भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो मजदूर सरकारसे लड्डू मिलनेकी आशा करते हैं; तब महात्माजीने कुछ गम्भीर वाणीमें उत्तर दिया :

लोग बाहरसे सहायताकी आशा नहीं छोड़ते। स्वराज्य कौन दे सकता है? वह तो हमें ही लेना है। दलित-वर्गों और हिन्दू-मुस्लिम एकताकी समस्याओंको हल करनेके

  1. उस समय अहमदाबादसे प्रकाशित होनेवाला एक गुजराती पत्र
  2. युग धर्मके सम्पादक। यह भेंट सैसून अस्पतालमें हुई थी।