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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनकी ये कमसे कम माँगें न्यायोचित और विवेकसम्मत हो—इस अर्थ में कि वह साधारण बुद्धिवाले, धर्म-भीरु लोगोंको ठीक जँचें। इसलिए ऐसा कह देना काफी नहीं है कि अमुक माँग धार्मिक माँग है। किसी भी धार्मिक माँगका बुद्धिको जँचना आवश्यक है।

अहिंसात्मक आन्दोलनमें जो न्यूनतम माँग है वहीं अधिकतम भी है; जैसे दुर्जय कठिनाइयाँ सामने आनेपर भी न्यूनतम माँगमें कमी नहीं की जा सकती, ठीक उसी प्रकार अनुकूल वातारण पाकर उसमें कुछ वृद्धि भी नहीं की जा सकती।

यह निष्कर्ष इस तथ्यसे निकलता है कि अहिंसा में सत्यका समावेश होता है और सत्य में अवसरवादिताकी गुंजाइश नहीं होती।

२. इसलिए शि॰ गु॰ प्र॰ समिति के लिए गुरुद्वारा आन्दोलनके सभी फलितार्थोंको स्पष्ट कर देना आवश्यक है, अर्थात् उसे बता देना चाहिए कि वह किन गुरुद्वारोंको ऐतिहासिक मानती है अथवा कौनसे गुरुद्वारे आन्दोलनके अन्तर्गत आते हैं, जिनपर अधिकार किये बिना एक सच्चा धर्मनिष्ठ अकाली चैनसे नहीं बैठ सकता। दूसरी बात यह है कि इस समय गंगसर गुरुद्वारेमें अखण्ड पाठका जो आन्दोलन[१] चल रहा है उसका ठीक अभिप्राय क्या है?

तीसरी बात यह है कि नाभाके महाराजसे जबरदस्ती राज्य-त्याग करवाने अथवा उनके स्वयं गद्दी छोड़ने के सम्बन्ध में आन्दोलनका असली स्वरूप क्या है।

३. मेरी रायमें गुरुद्वारोंके सिलसिले में स्वत्व सम्बन्धी विवादकी प्रक्रिया इस प्रकार होनी चाहिए : (१) वह मौजूदा अदालतोंमें ले जाये बिना या उनके हस्तक्षेपके बिना निष्पक्ष गैर-सरकारी पंच द्वारा तय कराया जाये, (२) जहाँ विपक्षी दल तर्क या पंच निर्णय के प्रस्तावको स्वीकार करनेसे इनकार कर दे वहाँ सत्याग्रह द्वारा; अर्थात् शि॰ गु॰ प्र॰ समिति द्वारा अपने स्वामित्व के अधिकारका अहिंसात्मक ढंगसे आग्रह रखना। यह तरीका आदिसे अन्ततक पूर्णतया अहिंसात्मक रहे इसके लिए इतना ही काफी नहीं है कि इसमें सक्रिय हिंसा न हो, बल्कि यह जरूरी है कि इसमें शक्तिका तनिक भी प्रदर्शन न किया जाये।

इसका अर्थ है कि शि॰ गु॰ प्र॰ समितिके स्वत्वका दावा करने के लिए बहुतसे लोगों को नियुक्त नहीं किया जा सकता; बल्कि एक या ज्यादासे ज्यादा दो आदमी जिनकी सचाई, आत्मिक शक्ति और नम्रता असंदिग्ध हो, इस स्वत्वका दावा करने के लिए चुने जा सकते हैं। हो सकता है कि इसके परिणाम स्वरूप इन नेताओं को अपनी बलि देनी पड़े। मेरी दृढ़ धारणा है कि उसी क्षण समितिका स्वत्व सुनिश्चित हो जायेगा, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि उनका बलिदान कुछ दिनोंके लिए टल जाये और इस बीच सम्भव है, उन्हें छोटे-मोटे कष्ट, भयंकर मार-पीट या कैद आदि भुगतनी पड़े। उस हालत में और ऐसे हर मामले में जबतक वास्तविक नियन्त्रण नहीं

  1. जैतोंके निकट गंगसर गुरुद्वारे में अक्तूबर १९२३ से अखण्ड पाठ चल रहा था। वहाँ प्रतिदिन २५ सिखोंका एक जत्था-ग्रंथ साहबका पाठ करनेके लिए भेजा जाता था जिसे तुरन्त गिरफ्तार कर लिया जाता था।