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१४४. भेंट : 'स्टेड्स रिव्यू' के प्रतिनिधिसे

[११ मार्च, १९२४के पश्चात्][१]

गांधी एक नारंगी खा रहे थे और उनके पास ही उनकी सेवाके लिए एक भारतीय नर्स उपस्थित थी। मैंने उनसे अनुरोध किया कि बातचीतके लिए इसकी जरूरत नहीं है कि वे अपना खाना रोक दें। लोगोंका आना-जाना लगातार जारी था किन्तु यह सब बिलकुल चुपचाप हो रहा था। ये गांधी-भक्त भारतीय अपने पूज्य नेताको देखनेके लिए काफी असुविधा और खर्च उठाकर दूर-दूरसे यहाँ अन्धेरी आये थे। वे प्रणाम करते थे और चले जाते थे। कुछ लोग दूर खड़े होकर ध्यान-पूर्वक हमारी बातचीतका एक-एक शब्द सुन रहे थे। उनकी आँखोंकी चमकसे प्रकट होता था कि वे अपने नेताकी हरएक बातसे पूरी तरह सहमत हैं। हालाँकि श्रोताओं-की संख्या बढ़कर ५० तक पहुँच गई थी किन्तु हमारी बातचीत में इससे कोई बाधा नहीं पड़ी। इस बीचमें किसीने खाँसा तक नहीं। भारतीय स्वभावसे वाचाल होता है। उनकी यह शान्ति इस बातका प्रमाण थी कि अपने पूज्य नेताको उपस्थितिमें उसके प्रति अपने आदर-भावके कारण वे कितने शान्त रहते हैं।

मैंने कहा, "श्री गांधी, में आपसे दस सवाल पूछूँगा। आप अपनी इच्छाके अनुसार जिनका उत्तर देना चाहें दें और न देना चाहेंतो न दें। मेरा पहला प्रश्न यह है कि आप अपने प्रचार में सूत कातनेपर इतना जोर क्यों देते हैं? क्या इसका कारण यह है कि आप मानते हैं कि भारतकी आर्थिक पराधीनता उसकी राजनीतिक पराधीनता को मजबूत बनाती है?" गांधीने एकदम कहा :

बिलकुल यही बात है। जब भारतीय अपनी कपास खुद कातते और बुनते थे तब वे खुशहाल थे और सुखी थे। जिस दिनसे उन्होंने अपनी कपास लंकाशायरको बेचनी और लंकाशायरसे कपड़ा खरीदना शुरू किया उसी दिनसे वे लगातार गरीब और बेकार होते गये। आज यह हालत है कि भारतीय जनताका ८५ प्रतिशत सालमें चार महीने बेकारीमें बिताता है। इस विदेशी कपड़ेने हमारे देशको बेकारों और भिखारियोंका देश बना दिया है। चरखा गाँवोंको न केवल उनकी समृद्धि देगा बल्कि उनमें आशा और स्वाभिमानकी भावनाका संचार भी करेगा। पिछले पचास वर्षोंसे भारतीय जनता लगातार निराश होती चली आई है। चरखा उनके लिए उस नये जीवनका प्रतीक है जो निराशाके इस अन्धकारसे उनका उद्धार करेगा।

आपके देशको जनताको प्राथमिक शिक्षाको बहुत ज्यादा आवश्यकता है। लेकिन आप तो कताईको उससे भी ज्यादा महत्त्व देते हैं?

  1. इस भेंटकी ठीक तारीख उपलब्ध नहीं है। भेंट जुहूमें हुई थी जहाँ गांधीजी आपरेशनके बाद स्वास्थ्य-लाभके लिए विश्राम कर रहे थे। गांधीजी जुहू ११ मार्च, १९२४ को पहुँचे थे।