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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाता तबतक मतदानके योग्य नागरिकों के अनिवार्य पंजीकरणका कोई उपयोग नहीं है। और जिन लोगोंको मतदान के लिए कह सुनकर ले जाना पड़े, उनके मतोंका मूल्य सन्दिग्ध ही कहा जायेगा। इसलिए मेरा विचार यह है कि देश में जहाँ-तहाँ लोगोंके नाम पंजीकृत करने के लिए कुछ केन्द्र खोल दिये जायें जहाँ कि मताधिकारके इच्छुक लोग कुछ मामूली शुल्क देकर अपना नाम दर्ज करा सकें। यह शुल्क इतना ही होना चाहिए जितनेसे कि मतदान-संग्रहके लिए की जानेवाली व्यवस्था स्वावलम्बी हो जाये। मेरा विश्वास है कि इस तरह हम किसी भी सवालपर जनताकी रायका पता लगा सकेंगे।

क्या भारत जैसे देशमें इस बातका डर नहीं है कि ब्रिटिश शासन के अंकुश से मुक्त होनेपर बंगालियों, ब्राह्मणों आदिका अल्पसंख्यक बुद्धि-प्रधान वर्ग सरकारकी बागडोर हथिया लेगा और उससे अपना स्वार्थ साधेगा तथा अपने अज्ञानी देशभाइयोंको और भी बदतर गुलामीकी हालत में ढकेल देगा? आप तो जानते ही हैं कि भारतके इतिहास में ऐसी घटनाओंका होना अज्ञात नहीं है।

किन्तु आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि वैसा आज भी हो सकता है? जनतापर गुलामी लाद सकने के लिए इन सत्ताधारियोंके पास कोन-सी शक्ति होगी? उनके पास कोई सेना तो होगी नहीं। इस समय अंग्रेज जिस दुर्भेद्य स्थितिमें हैं, ऐसी दुर्भेद्यताका कोई भी साधन उनके पास नहीं होगा। मैं तो यह मानता हूँ कि यदि भारतीयोंके किसी वर्गने जनतापर गुलामी लादने की कोशिश की तो जनता उसके टुकड़े-टुकड़े कर देगी।

श्री गांधी, स्वराज्यकी प्राप्तिके लिए कताईके सिवाय आप अपने देशभाइयोंसे और क्या करनेको कहते हैं?

हमें सबसे पहले उन विदेशियोंके सहानुभूति-शून्य आधिपत्यको समाप्त करना है जो यहाँ केवल हमारा धन लूटनेके लालचसे आते हैं। व्यक्तियोंके रूपमें अंग्रेजोंके खिलाफ मुझे कोई शिकायत नहीं है। कोई भी विदेशी सत्ता हमारे साथ अच्छेसे अच्छा जैसा व्यवहार करती, वे भी शायद उतना ही अच्छा व्यवहार करते हैं। बेशक, हरएक विदेशी शासनसे लोगोंको कुछ छोटी-मोटी परेशानियाँ तो होती ही हैं और ऐसी परेशानियाँ अंग्रेजी शासनसे भी होती हैं। किन्तु अंग्रेजों के खिलाफ हमारी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि उन्होंने भारतको लगातार अधिकाधिक गरीब बनाया है। यदि भारतमें रहनेवाले अंग्रेज इस देशके वैसे ही वफादार और उपयोगी नागरिक बन जायें जैसे कि वे आस्ट्रेलिया या दक्षिण आफ्रिकामें बन गये हैं तो मैं अपने भाइयोंकी तरह उनका स्वागत करूँगा। लेकिन वे तो यहाँ केवल इस देशकी जनताका शोषण करने के लिए, इस भूमिकी धन-सम्पत्तिका अपहरण करनेके लिए ही आते हैं। सौ वर्षव्यापी इस अविरत शोषणके बाद अब हमारी शक्ति निःशेषप्रायः हो गई है। अब या तो हमें इस शोषणको एकदम बन्द करना चाहिए या फिर हमारी अतीतकालीन महानताके और हमारी संस्कृतिके अवशिष्ट चिह्न भी लुप्त हो जायेंगे। यही कारण है कि मैं उनसे चले जानेको कहता हूँ। मुझे निश्चय है कि असहयोग के द्वारा हिंसाका आश्रय लिये विना ही, हम उन्हें यहाँसे चले जानेके लिए बाध्य कर सकते हैं। अंग्रेज शासक कानून बना सकते हैं किन्तु