पणिक्करने इस पत्रको पढ़ लिया है और तुम जब भी चाहोगे, वे नौकरीसे मुक्त होने तथा कर्जकी बाकी रकम चुकाने के लिए तैयार रहेंगे।
हृदयसे तुम्हारा,
पण्डित जवाहरलाल नेहरू
- अंग्रेजी पत्र (एस॰ एन॰ ८५०३) की फोटो नकलसे।
१५८. पत्र : ए॰ ए॰ पॉलको
पोस्ट अन्धेरी
१५ मार्च, १९२४
प्रिय श्री पॉल,
आपका ८ तारीखका पत्र मिला, साथमें श्री एटकिनके पत्रकी प्रति भी। मेरा खयाल है कि हम दोनों एक-दूसरेसे परिचित हैं। अगर ये वही एटकिन हैं जिन्हें मैं जानता हूँ, तो फिर वे मेरे विचारोंको भली-भाँति जानते हैं। फिर भी अगर कोई उपयोग हो तो मैं अपने विचार संक्षेपमें लिखे दे रहा हूँ।
दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय समाजमें सब प्रान्तोंके लोग हैं। उनमें हिन्दू, इस्लाम, ईसाई और पारसी सभी धर्मोके लोग हैं। बहुतसे ऐसे भारतीय भी हैं जिनका जन्म दक्षिण आफ्रिकामें ही हुआ है। वे ईसाई हैं और उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की है। इसलिए स्वभावतया वे अपने आत्म-सम्मानके प्रति अधिक सजग हैं। दक्षिण आफ्रिकाका प्रतिबन्धकारी विधान उनपर भी लागू होता है, हालाँकि दक्षिण आफ्रिका उनका घर है और उनमें से अधिकांश लोग सोचते हैं कि उनका कभी भारत जाना होगा ही नहीं। लोगोंको यहाँ इस बातका भी पता नहीं है कि इन नवयुवकों और नवयुवतियोंने—चाहे गलत हो या ठीक—यूरोपीय रीति-रिवाजों, तौर-तरीकों और पहनावे आदिको अपना लिया है। ईसाई धर्म अपनाना, उच्च शिक्षा प्राप्त करना और उनका यूरोपीय रंगमें रंग जाना, इनमें से कोई भी चीज उन्हें प्रतिबन्धोंके अभिशापसे नहीं बचा सकी है। मैं इनकी चर्चा इस खयालसे नहीं कर रहा हूँ कि उनके साथ विशेष अथवा अन्य भारतीयोंसे अलग ढंगका व्यवहार किया जाना चाहिए (वे स्वयं ऐसे किसी भी भेद-भावका विरोध करेंगे)। इसकी चर्चा मैं इस तथ्यको समझाने के लिए कर रहा हूँ कि दक्षिण आफ्रिकामें प्रतिबन्धकारी विधान मुख्य रूपसे जातिगत भेद-भावपर आधारित है। आर्थिक पहलू तो गौण स्थान रखता है। भारतीयोंकी माँग अत्यन्त सीधी-सादी और उचित है। भारतीयोंके भावी प्रवास के सम्बन्धमें लगाये गये प्रशासनिक प्रतिबन्धों को उन्होंने स्वेच्छासे स्वीकार कर लिया है और वस्तुतः किसी भी ऐसे भारतीयको, जो पहले कभी दक्षिण आफ्रिकामें न रहा हो और जिसने दक्षिण आफ्रिकाको लगभग अपना घर न बना लिया हो, आने
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