नहीं दिया जाता। अपने अधिकारोंके इस स्वैच्छिक त्यागके बदले वहाँके भारतीय अधिवासी समताका व्यवहार चाहते हैं। दक्षिण आफ्रिकाके विचारशील यूरोपीयोंने इस माँगको हमेशासे बहुत ही उचित माना है और १९१४ में दक्षिण आफ्रिकाकी सरकार और भारतीय समाजमें एक समझौता भी हुआ था, जिसमें साम्राज्य सरकार और भारतीय सरकार दोनों शरीक थीं। समझौते के अनुसार यह तय पाया गया था कि अब भविष्य में कोई प्रतिबन्धकारी विधान पास नहीं किया जायेगा और अधिवासी भारतीयों की स्थिति में निरन्तर अधिकाधिक सुधार किया जाता रहेगा।[१] इसलिए दक्षिण आफ्रिकाके वर्तमान भारतीय विरोधी प्रचारके सम्बन्धमें स्थानीय भारतीय समाजको दोहरी शिकायत है। दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाले यूरोपीय लोगोंका बहुत बड़ा हिस्सा नाम मात्रको ईसाई है। मेरा यह सौभाग्य है कि में कह सकता हूँ, उनमें से बहुतसे लोग और खासकर मिशनरी लोग मेरे पक्के मित्र हैं। होना तो यह चाहिए कि सच्चे ईसाई सत्य और न्यायका पक्ष लेकर उठ खड़े हों लेकिन दुर्भाग्यकी बात यह है कि उनमें से कुछ अच्छेसे-अच्छे लोग भी इस बातपर बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं कि अमुक काम करनेमें उनका हित है या नहीं। वे सोचते हैं लोगों में प्रचलित पूर्वग्रहोंके बावजूद सत्यका पक्ष लेकर उठेंगे तो इससे सेवाके लिए उनकी उपयोगिताको नुकसान पहुँचेगा। मैं इस विचारसे हमेशा असहमत रहा हूँ, और विस्तृत अनुभवों के आधारपर मेरा विनम्र मत तो यही बन पाया है कि ऐसा रुख अपनाना शैतानके आगे, बिलकुल अनजाने ही क्यों न हो, झुकना है।
मुझे आपको यह विश्वास दिलानेकी जरूरत नहीं कि श्री एटकिनके पत्रको बिलकुल गोपनीय रखा जायेगा; और इसी कारण मैं आपको जो पत्र भेज रहा हूँ उसका भी कहीं उपयोग नहीं करूँगा।
आपका,
श्री ए॰ ए॰ पॉल
महामन्त्री
द स्टूडेंट्स क्रिश्चियन एसोसिएशन ऑफ इंडिया, बर्मा ऐंड सीलोन
६, मिलर रोड, किलपॉक
मद्रास
- अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८५००) तथा ९९२७ की फोटो-नकलसे।
- ↑ देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ३२४।