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पत्र : डी॰ हनुमन्तरावको

स्थापना ही इसलिए हो पाई कि हमें विनोबा जैसा व्यक्ति मिल गया था। एक और आश्रम अन्धेरी के समीप है, क्योंकि केशवराव देशपाण्डे-जैसा व्यक्ति हमें मिल गया है। चारों ही अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं। ऐसे आश्रम प्राणियों या वनस्पतिकी तरह अनुकूल परिस्थितियाँ और समय पाकर अपने-आप अंकुरित और पल्लवित होते हैं। तुम्हारे सुझावकी मुख्य बात मुझे पसन्द आई; यानी मुझे साबरमती आश्रम में बने रहकर उसको सर्वांगपूर्ण बनानेकी कोशिश करनी चाहिए। मैं इसे अत्यधिक पसन्द करूँगा। बाह्य राजनैतिक गतिविधियोंमें मैं अपने मनसे नहीं कूदा हूँ ये तो मेरे सिर आ पड़ी हैं; इसलिए अपनी इच्छासे मैं इन्हें त्याग भी नहीं सकता। यदि ईश्वरकी मर्जी हुई कि मैं आश्रम में रहकर उसका विकास करूँ, तो वह उसके लिए मेरा रास्ता साफ कर देगा। यदि आश्रम वास्तवमें कोई चेतन वस्तु है, तो मेरा विश्वास है कि मैं साबरमती में रहूँ या न रहूँ, उसकी प्रगति होती रहेगी। बहरहाल अगर ऐसी संस्था केवल एक व्यक्ति के इस संसारमें बने रहनेपर निर्भर करती हो, तो वह उस व्यक्ति के साथ ही नष्ट होकर रहेगी; और अगर उसे स्थायी रूप ग्रहण करना है तो उसे अपने अस्तित्व के लिए अपनी आत्म-निर्भरता और अपनी ही भीतरी जीवन-शक्तिका भरोसा करना पड़ेगा। और हमें ऐसी संस्थाओंकी सफलता तथा प्रगतिके सम्बन्धमें भी अधीर नहीं होना चाहिए। हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि हम अपनी बुद्धिके अनुसार काम करें और बाकी सब उसपर छोड़ दें जो इस सृष्टिका सूत्रधार है। तुमने सयानी लड़कियोंको तबतक अपने आश्रम में न रखनेका फैसला किया है जबतक कि ऐसी महिला कार्यकत्रियाँ पर्याप्त संख्या में नहीं मिल जातीं, जो किसी औरकी मदद के बिना अपना काम चला सकें और सयानी लड़कियोंके लिए रक्षा कवच बन सकें। मेरा खयाल है कि इस गम्भीर उत्तरदायित्वको अपने कन्धोंपर न लेकर तुमने ठीक ही किया है। मैं उम्मीद करता हूँ, आगे चलकर स्वयं तुम्हारी पत्नी इस योग्य बन जायेगी।

और अब प्राकृतिक चिकित्सा के सम्बन्ध में। मैं जानता हूँ कि साबरमती में जहाँ-तक भोजन और औषध सम्बन्धी सहायताका प्रश्न है, जितने भी परिवर्तन किये गये हैं, सभी दुर्बलताके द्योतक हैं। शुरुआत मेरी पहली गम्भीर बीमारीके साथ हुई थी। इस बीमारीने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया और मैं अपना आत्मविश्वास खो बैठा। इसके विपरीत कोचरबमें मैंने एक साथ दो रोगियोंकी निःशंक भावसे देखभाल की थी, जिनमें से एक भयंकर चेचकसे पीड़ित था और दूसरा मोतीझरासे। डाक्टरोंने मुझे ऐसा करनेसे बहुत रोका, किन्तु प्रकृतिकी निरोधक क्षमतामें विश्वास रखते हुए मैं यह काम करता ही रहा। साबरमतीमें अपनी बीमारीके बाद तो मुझसे छोटी-छोटी बीमारियोंका भी उपचार करते नहीं बना। मेरा सिद्धान्त यह है कि जो व्यक्ति खुद ही बीमारीका शिकार हो जाता है वह दूसरोंको राह दिखाने के अयोग्य है। मैंने दूध और घीके बिना काम चलानेकी कोशिश दुराग्रहकी सीमातक की; लेकिन मैं असफल रहा। यदि मैं बीमारी की चपेटमें न आया होता, तो मैं अपने प्रयोगोंको जारी रखता, लेकिन मैं घबरा गया। ओषधियोंके सम्बन्धमें भी मुझे खेदके साथ यही बात कबूल करनी चाहिए। जो व्यक्ति अन्य लोगोंको इन चीजोंसे दूर रहने की सलाह देता है उसे चाहिए कि वह उसीके समान कोई दूसरा कारगर उपाय प्रस्तुत कर