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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सफल हो गये हैं। दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय प्रवासियोंका भविष्य डाँवाडोल स्थितिमें है। फीजीमें भारतवासियोंकी हालत दाँतोंके बीच जीभ के समान है। और इस बातका क्या भरोसा कि यदि परीक्षणका समय आया तो ब्रिटिश गियाना ही इसका अपवाद ठहरेगा। भारतीय इस उपनिवेशमें यूरोपीयोंके साथ प्रतिस्पर्धा में सफल हुए नहीं कि उसी क्षण लिखित अथवा मौखिक सारे वचनोंका लोप हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य प्रणालीके प्रति अब मेरे हृदयमें इतना अविश्वास भर गया है कि मैं ब्रिटिश गियानामें भारतीयोंको भेजनेकी किसी भी तजवीजको मंजूर नहीं कर सकता-भले ही वह तजवीज कागजपर कितनी ही मनमोहक क्यों न दिखाई दे और वचनोंके ठीक-ठीक पालन करनेका कितना ही आश्वासन क्यों न दिया जाये। ऐसी किसी भी तजवीजसे भारतीय प्रवासियोंको होनेवाला लाभ अवास्तविक ही होगा। इसलिए मैं ब्रिटिश गियानामें भारतीयोंको बसाने की वर्त्तमान तजवीजको मंजूर करनेमें असमर्थ हूँ। उपर्युक्त मूल आपत्तिके कारण मुझे ब्रिटिश गियानाके शिष्टमण्डलोंसे मिले बिना ही अपनी राय प्रकट करनेमें संकोच नहीं है। यदि इस तजवीजके गुण-दोषोंके सम्बन्धमें मुझे अपनी राय देनी होती तो सामान्य शिष्टाचारके नाते उसके खिलाफ राय देनेके पहले ब्रिटिश गियानाके शिष्टमण्डलोंसे मिलकर उनका दृष्टिकोण जान लेना मेरा कर्त्तव्य हो जाता। परन्तु जबतक भारत आजाद नहीं हो जाता और जबतक भारतमें ऐसी सरकारकी स्थापना नहीं हो जाती जो पूर्ण रूपसे जनताके प्रति जिम्मेदार हो और जो प्रवासी भारतीयोंको अन्यायसे बचानेकी पूरी क्षमता रखती हो, तबतक किसी आदर्श योजनासे भी प्रवासी भारतीयोंको लाभ नहीं पहुँच सकता।

मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २०-३-१९२४

१६८. पत्र : ए॰ डब्ल्यू॰ बेकरको[१]

पोस्ट अन्धेरी
१८ मार्च, १९२४

प्रिय श्री बेकर,

'द की टु हैपीनेस' (सुखकी कुंजी) के साथ आपका पत्र पाकर मुझे खुशी हुई। 'किसी बातकी चिन्ता न करो' का तो मुझे हमेशा सहारा रहा है। यदि मैंने अपनी सारी चिन्ताएँ ईश्वरको समर्पित न कर दी होतीं तो मैं अबतक पागल हो गया होता। आपके पत्रके दूसरे हिस्से के बारेमें फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि ईश्वर जिस पथपर चलनेकी मुझे प्रेरणा देता है मैं उसीपर चलनेकी कोशिश करता हूँ। मेरे अज्ञानके सिवाय अन्य कोई वस्तु मुझे उस पथसे डिगा

  1. दादा अब्दुल्ला सेठके एटर्नी, जिनसे गांधीजी १८९३ में प्रिटोरियामें मिले थे। देखिए खण्ड १, पृष्ठ ८३ ।