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१७९. पत्र : सी॰ विजयराघवाचार्यको[१]

पोस्ट अन्धेरी
१९ मार्च, १९२४

प्रिय मित्र,

आज मैं आपकी भेंट के ब्योरेको[२] शुरू से आखिरतक पढ़ पाया हूँ।

आपने कुछ ऐसे विषय छुए हैं जिनमें से कुछपर मैं तबतक मौन रहनेके लिए वचनबद्ध हूँ, जबतक कि परिषद् में प्रवेशकी जोरदार वकालत करनेवाले नेताओंसे मिल नहीं लेता।

पिछली कांग्रेस[३] सफल रही या नहीं, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसपर में कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि मैं वहाँ नहीं था। इस प्रश्नपर आपकी टिप्पणी बहुत दिलचस्प है। लगता है, आप सोचते हैं कि कांग्रेसने अस्पृश्यता और सामान्य राष्ट्रीय शिक्षाकी दिशामें बहुत कम काम किया है। मैं इस विचारसे असहमति व्यक्त करता हूँ। कांग्रेसी हिन्दुओंके लगातार प्रचारके कारण अस्पृश्यता निवारण निकट भविष्य में सम्भव हो गया है। निःसन्देह, अब भी बहुत कुछ करना बाकी है। जो अन्धविश्वास अपनी प्राचीनता के कारण अनुपयुक्त रूपसे पवित्र माने जाने लगे हैं उन्हें जड़से उखाड़ना आसान काम नहीं है। लेकिन यह बाधा हटती जा रही है।

मैं आपके इस मन्तव्यका हृदयसे अनुमोदन करता हूँ कि सभी अल्पसंख्यकों को प्रेरित करके देश सेवामें लगाना हिन्दुओंका कर्त्तव्य है।

अच्छा होता कि अस्पृश्यता के विरुद्ध आपकी घोषणा और भी सुनिश्चित तथा कठोर होती। उसके मूलकी खोजसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं। अवश्य ही मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि पापको बराबर बनाये रखनेके लिए उच्चतर वर्ण पूर्ण रूप से उत्तरदायी हैं। आपने कुछ अवसरोंपर स्त्रियों तथा अन्य लोगोंको न छूनेकी प्रथाको दलितवर्गों और उनके वंशजोंकी उस अस्पृश्यता के सदृश बताया है जो प्रत्येक परिस्थिति में स्थायी रहती है; यह उचित नहीं है। इन वर्गोंकी दशा सुधारने के लिए आपने जो उपाय सुझाये हैं, उनसे भी मैं प्रभावित नहीं हुआ।

आप कहते हैं कि अदालतों और सरकारी स्कूलोंका बहिष्कार समाप्त कर देना चाहिए। इस सुझाव के औचित्यपर मुझे सन्देह है। यद्यपि उसका इस समय कोई मूल्य नहीं, तथापि इसी कारण वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं हो जाता। इन दोनों ही

  1. सी॰ विजयराघवाचार्थ (१८५२-१९४३); एक प्रमुख वकील और कांग्रेसी। १९२० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके नागपुर अधिवेशनके अध्यक्ष।
  2. यह हिन्दू और वायस ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुआ था। विजयराघवाचार्थने गांधीजी को एक नकल भेजी थी जो उपलब्ध नहीं है।
  3. कोकोनाडा अधिवेशन, १९२३।