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पत्र : सी॰ विजयाराघवाचार्यको

संस्थाओंने अपनी प्रतिष्ठा खो दी है। जरूरत इस बातकी है कि बहिष्कार न करने-वाले लोगों अर्थात् अब भी वकालत करनेवाले लोगों और अब भी सरकारी स्कूलोंमें पढ़नेवाले छात्रोंके प्रति यदि जरा-सा भी कटुताका भाव हो तो उसे दूर किया जाना चाहिए। यदि हम उनके प्रति कटुतापूर्ण विद्वेष नहीं रखते वरन् उन्हें स्वतन्त्र निर्णयका हक देते हैं या उनकी दुर्बलता के लिए उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं तो हम इस प्रकार दोनोंको ही अपनी ओर कर लेंगे। मुझे विश्वास है कि यदि हम कहीं अच्छी तरह या पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं, तो उसका प्रमुख कारण हमारी असमर्थता या अपने व्यक्तिगत आचरण में सम्पूर्ण रूपसे अहिंसापर अमल करनेकी हमारी अनिच्छा रही है।

स्वराज्यके बादकी स्थिति के बारेमें आपने जो सुझाव दिया है उसपर मैं कुछ नहीं कहना चाहता। इसलिए कि आखिर जिन उपायोंसे स्वराज्य मिलेगा वही काफी हदतक स्वराज्यके बाद हमारा कार्यक्रम निश्चित करेंगे।

आप ऐसा सोचते जान पड़ते हैं कि आनेवाले वर्षोंमें शायद एक शताब्दीतक या हमेशा के लिए हमें निश्चित रूपसे इंग्लैंड के साथ साझेदारी रखनी पड़ेगी और यह अपनी मर्जीसे नहीं, मजबूरन। इसीलिए जाहिर है कि आप ब्रिटिश सम्बन्धोंके बिना स्वराज्य के बारेमें सोच ही नहीं सकते। मेरी रायमें यदि हमारे अस्तित्व के लिए ब्रिटिश सम्बन्ध आवश्यक हैं, तो फिर हम चाहे जितनी स्वतन्त्रता पा जायें, उसे पूर्ण स्वराज्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मेरी नम्र रायमें, पूर्ण स्वराज्यका अर्थ है कि कारण उपस्थित होनेपर हम यह सम्बन्ध तोड़ने में समर्थ हों। मेरे लिए ऐसी साझेदारीका कोई अर्थ नहीं जिसमें एक पक्ष इतना कमजोर हो कि उसे तोड़ ही न सके। आपके तर्कसे तो यह भी अर्थ निकलता है कि स्वराज्य केवल ब्रिटिश संसदसे मिलेगा। आप मेरे विचार जानते हैं। मेरी स्वराज्यकी परिभाषा यह है कि हमें उसे प्राप्त करना है और इसलिए हमें उसके लिए तैयार होना है। चाहे व्यक्ति हो या राष्ट्र यह स्वतन्त्रताकी शाश्वत शर्त है। इसके अलावा यदि स्वराज्य केवल ब्रिटिश संसदसे दानके रूपमें मिलना है तो मेरी रायमें परिषदोंमें प्रवेशके विरुद्ध सारा तर्क व्यर्थ हो जाता है।

आशा है आपका स्वास्थ्य ठीक होगा। मेरा स्वास्थ्य धीरे-धीरे लेकिन बराबर सुधरता जा रहा है।[१]

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सी॰ विजयराघवाचार्य

आराम

सेलम
अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८५२६) की फोटो नकल तथा सी॰ डब्ल्यू॰ ५१२५ से।
  1. विजयराघवाचार्यने इस पत्रका उत्तर २३ मार्चको दिया था। देखिए "पत्र : सी॰ विजयराघवाचार्यको २८-३-१९२४; तथा परिशिष्ट १० भी।