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१८०. पत्र : एस॰ ई॰ स्टोक्सको

पोस्ट अन्धेरी
१९ मार्च, १९२४

प्रिय मित्र,

रजिस्ट्री से भेजा बंडल[१] रविवारको मिल गया था और चूँकि कल अस्पतालमें भरती होने के बाद मेरे मौनका पहला सोमवार था, मैं दोनों ही चीजें पढ़ गया। स्मरण- पत्र आपकी इच्छानुसार मैं ऊपर भेजे दे रहा हूँ। दोनों उपयोगी हैं और जानकारी देते हैं। उन्होंने मेरे सामने एक ऐसे व्यक्तिको मनोभावना रखी जिसकी निष्पक्षता के बारेमें मुझे कोई सन्देह नहीं और जिसके विचारोंकी में कद्र करता हूँ। यदि कहीं मैं आपके दिये हुए तथ्यों और असहयोग सम्बन्धी विचारोंको स्वीकार कर सकता तो फिर मुझे आपसे सहमत होने में कोई बाधा नहीं रहती। मैं आपकी इस रायका पूरी तरह अनुमोदन करता हूँ कि यदि परिषद् में कोई प्रवेश करता है तो उसका प्रवेश वहाँके काम में केवल रुकावट डालने के लिए नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत हमें सरकार द्वारा दी गई प्रत्येक अच्छी वस्तुसे लाभ उठाना चाहिए और उनमें जो बुराई हो उसे सुधारनेकी अपनी तरफसे पूरी कोशिश करनी चाहिए। आपका तर्क स्वीकार करूँ तो फिर मुझे आपके इस विचारका भी अनुमोदन करना चाहिए कि वकीलों और अदालतों-परसे भी निषेधाज्ञा हटा ली जानी चाहिए। परन्तु मेरा खयाल है कि शायद हम दोनोंमें अहिंसात्मक असहयोगकी व्याख्या और उसके निहितार्थके बारेमें मौलिक मतभेद हैं और इसीलिए जेलसे बाहर आनेपर आपको चारों ओर परिस्थिति निराशाजनक नजर आई, क्योंकि आपने महसूस किया और देखा कि कांग्रेसकी सब गति-विधियाँ कुण्ठित हो गई हैं। किन्तु मैं ऐसी हालतमें इस कुण्ठाको दूर करनेके अन्य उपाय न सोचता। मैं इसे देश के सार्वजनिक जीवनके विकासमें एक जरूरी अवस्था मानता। मैं इसे एक दुर्लभ अवसर मानता और अपने प्रयत्नोंको द्विगुणित करता तथा इससे मुझे कार्यक्रम में अपने विश्वासकी परीक्षा करनेकी और भी अधिक दुर्लभ, विशेष सुविधा उपलब्ध होती। आपने अपने व्यक्तिगत अनुभव बताये हैं और स्वभावतः निष्कर्ष निकाला है कि कार्यक्रमके सम्बन्धमें कुछ गलती हुई जिससे कि यह कार्य जिसका कि आपने और आपके सहयोगियोंने धैर्यपूर्वक निर्माण किया था एक क्षणमें प्रायः विनष्ट हो गया। लेकिन वकीलोंमें एक कहावत है कि विशेष परिस्थितियोंमें जो किया गया हो उसे कानूनकी प्रतिष्ठा देना अनुचित है। यदि इसका ठीक अर्थ लें तो यह एक ठोस सत्य है। धार्मिक दृष्टिकोण से इसकी व्याख्या की जाये तो इसका अर्थ होगा कि कुछ विशेष परिस्थितियों में धार्मिक सत्यसे अलग हटना भले ही लाभप्रद मालूम पड़े, किन्तु उन्हें सत्यपर से विश्वास खो देनेका कोई आधार नहीं माना जा

  1. इसमें ऐसे 'स्मरणपत्र' ये जो परिषद् में प्रवेशके मामलेको अधिक पूर्ण रूप से प्रस्तुत करते थे।