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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शस्त्रबलसे वे अपनी स्थितिकी रक्षा करनेमें समर्थ थे और अवसर आनेपर उसका उपयोग करना चाहते थे। जहाँतक मैं जानता हूँ भारत जैसी हालत संसारमें दूसरी जगह नहीं है। सामूहिक रूपसे लोग शस्त्र उठानेमें न तो समर्थ हैं और न वे वैसा करना चाहते हैं। यदि आप परिषदोंमें जायें और वहाँ सरकारके हाथों अपने उद्देश्यमें पराजित हो जायें तो फिर आपको विद्रोह करने के लिए तैयार रहना चाहिए। किन्तु भारत में सशस्त्र विद्रोह सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता। वर्तमान पार्षदोंमें भी ऐसे लोग नहीं हैं जो लोगोंको सशस्त्र विद्रोहकी तालीम दे सकते हों। मैं विद्रोहकी जगह दूसरा कोई उपाय खोजना चाहता था। वह उपाय सविनय अवज्ञा है। इन परिषदोंमें जनता तो क्या पार्षद भी सविनय अवज्ञा करना नहीं सीख सकते। वे 'जैसेको तैसा' की नीतिमें विश्वास करते हैं और सरकारी पक्षके वितण्डावाद, टालमटोल यहाँतक कि धोखाधड़ीका भी जवाब वितण्डावाद, टालमटोल और धोखाधड़ीसे ही देते हैं। उनका प्रकट उद्देश्य सरकारको परेशानी में डालना है। सरकारके हृदयमें भय पैदा करना उनका उपाय है। असहयोगियोंका प्रकट उद्देश्य सरकारको परेशानी में डालना कदापि नहीं है और वे हमेशा हृदयको छूना चाहते हैं और इसलिए प्रेम और विश्वास ही उनका साधन हो सकता है।

स्पष्ट ही आप कुछ इस तरह विचार करते जान पड़ते हैं कि आत्मा और धर्मकी प्रेरणासे किया गया असहयोग परिषदोंमें विशुद्ध राजनीतिक असहयोग के साथ-साथ चल सकता है। मेरी समझ में ये दोनों एक दूसरे के दुश्मन हैं। धर्मप्रेरित असहयोगमें मेरा इतना अडिंग विश्वास है कि यदि मुझे यह लगे कि इससे भारतकी जरूरतें पूरी नहीं होंगी और जनताकी भी उसके प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं होती, तो मैं अकेला ही असहयोग करने में सन्तोष मानूँगा और मनमें यह आशा रखूँगा कि अमोघ होनेके कारण वह अन्ततोगत्वा जनताका रुख बदल देगा। वास्तवमें जबतक अहिंसाको जीवनका सहज और सर्वोपरि नियम नहीं मान लिया जाता तबतक अन्य किसी उपायसे मुझे संसारके त्राणकी सूरत नजर नहीं आती। आज तो समाजका अन्तिम आधार शरीर-बल है। और यह हिंसा है। मेरा प्रयत्न बलकी पूजासे मुक्त होना है; मेरे लेखे स्वतन्त्रता इससे कम कुछ भी नहीं है। और मेरा विश्वास है कि यदि कोई एक देश इस सिद्धान्तको विस्तृत एवं व्यावहारिक रूपमें पूरी तरह आत्मसात् करने योग्य है तो वह भारत है। अपने इस विश्वासके कारण मेरे पास अपने देशकी जरूरतें पूरी करने के लिए कोई दूसरा उपाय नहीं है।

मेरा खयाल है कि मैं जितना कुछ कहना चाहता था, उससे ज्यादा कह चुका हूँ। मैंने जो कहा है उसे और भी परिपूर्ण रूपमें कहा जा सकता है, किन्तु कथनकी मेरी छोटी-मोटी त्रुटियोंको आप निस्सन्देह स्वयं सुधार सकते हैं। परिषद्-प्रवेश और इसी तरह के मामलोंपर अपनी राय व्यक्त करनेके लिए मैं प्रायः आतुर हूँ और आपका स्मरणपत्र पढ़ने के बाद और भी ज्यादा आतुर हो गया हूँ। लेकिन मैंने मोतीलालजी, हकीमजी और अन्य मित्रोंसे वायदा किया है कि जबतक मैं उनसे मिलकर सभी बातोंपर बातचीत नहीं कर लेता तबतक मैं अपने विचार सार्वजनिक रूपसे व्यक्त नहीं करूँगा। जब मैं इस प्रश्नपर अपने मनके सभी विचार